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तत्त्वार्थचिन्तामणि
और अनुपलम्भ हेतु भी उक्त ढंगसे पक्षकी कल्पना करते हुए पक्षके या साध्यके स्वभाव हो जायंगे, ऐसी दशामें तीन भेदवाले हेतु जो बौद्धोंने माने हैं, वह सिद्धान्त बिगड जायगा, रक्षित नहीं रह सकेगा।
यदि लोकानुरोधेन भिन्नाः संबंधभेदतः। . विषयस्य च भेदेन कार्याद्यनुपलब्धयः ॥ १३३॥ किं न तादात्म्यतज्जन्मसंबंधाभ्यां विलक्षणात् ।
अन्यथानुपपन्नत्वाद्धेतुः स्यात्कृत्तिकोदयः ॥ १३४ ॥
यदि जनसमुदायके अनुकूल प्रवृत्ति करनेसे संबंधका भेद और विषयभूत साध्यका भेद हो जानेसे कार्यहेतु, स्वभावहेतु, और अनुपलम्भ, ये तीन हेतु मानलोगे अथवा कारणके अभावको जाननेके लिये कार्यानुपलब्धि और व्यापकका अभाव साधनेके लिये व्याप्यकी अनुपलब्धि आदिको हेतु मानते हो तो स्वभावहेतुके प्रयोजक तादात्म्य संबंध और कार्यहेतुके प्रयोजक तदुत्पत्ति संबंधसे विलक्षण हो रहे अन्यथानुपपत्ति नामक संबंध हो जानेसे कृत्तिकोदय भी हेतु क्यों नहीं हो जावे । वस्तुतः देखा. जाय तो तदुत्पत्ति आदिक अनियत संबंधोंका व्यभिचार दीखरहा है। हेतु द्वारा साध्यको साधनेमें अन्यथानुपपन्नत्वरूप संबंध ही निर्दोष हो रहा है । अन्य कोई सम्बन्ध नहीं ।
यथैव हि लोकः कार्यस्वभावयोः संबंधभेदाचतोनुपलंभस्य च विषयभेदाभेदमनुरुध्यते तयाविनाभावनियममात्रात्कार्यादिहेतुत्रयात्कृत्तिकोदयादिहेतोरपीति कयमसौ चतुर्थी हेतुर्ने स्यात् । न छत्र लोकस्याननुरोधनवचो बाधकादिति शक्यं वक्तुं बाधकासंभवात् ।
कारण कि जिस ही प्रकार लौकिक जन कार्य और स्वभावके संबंधका भेद होनेसे और तिस ही कारण अनुपलम्भके विषयका भेद होनेसे हेतुओंके भेदका अनुरोध करता है। अर्थात् तादात्म्य और तदुत्पत्ति नामके दो संबंध हो जानेसे भावहेतुओंके स्वभाव और कार्य ये दो भेद करलेता है, तथा अभावरूप विषयको साधनेकी अपेक्षा अनुपलब्धि नामका तीसरा हेतु माना जाता है, तिसी प्रकार केवल अविनामावरूप नियमका संबंधी होनेसे उक्त कार्य आदि तीन हेतुओंके अतिरिक्त कृत्तिकोदय, भरण्युदय, चन्द्रोदय, आदि हेतुओंके भी भेद मानकर वह चौथा हेतु क्यों नहीं हो जावेगा। यानी तीनके अतिरिक्त चौथे, पांचवें, आदि भी हेतुके भेद हो जायेंगे । यहां बाधक कारण उत्पन्न हो जानेसे लोकका अनुकूल आचरण करनेवाला वचन नहीं है, यह तो नहीं कह सकते हो। क्योंकि कृत्तिकोदय आदिको ज्ञापक हेतु बनानेमें सभी लोकसम्मत हैं। कोई बाधक नहीं है।