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तत्वार्थचिन्तामणिः
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यों तो समम्यन्त या षष्ठ्यन्त आत्माशब्दके साथ प्रथमांत ज्ञानका समानाधिकरणपना नहीं है। हां, आत्मा और ज्ञानवान् यों कहनेपर समानाधिकरणपना तो है, किन्तु आत्माका असाधारणधर्म ज्ञानवान तो नहीं है। अतः श्री धर्मभूषणयतिका नैयायिकोंके प्रति पहिला असंभव दोष दिखलाना अपनी विद्वत्ताका प्रदर्शक है। तभी तो अस्वरस आनेपर दण्डमें अव्याप्ति दोष और अव्याप्तनामके लक्षणःभासमें अतिव्याप्ति दोष उठाया गया है । अतः न्यूनानतिरिक्त रूपसे लक्ष्यतावच्छेदकावच्छिन्नमें पूर्णरूपसे व्यापरहा असाधारणधर्म लक्षण हो जाता है । यहां बौद्धोंके हेतुका रूप्यलक्षण असाधारण नहीं है । अतिव्याप्ति दोष आता है।
असाधारणो हि स्वभावो भावलक्षणमव्यभिचारादग्नेरौष्ण्यवत् । न च त्रैरूप्यस्या साधरणता तदेतौ तदाभासेपि तस्य समुद्भवात् । ततो न तहेतुलक्षणं युक्तं पंचरूपत्वादिवत् ।
मावोंका असाधारणस्वभाव ही तो उनका लक्षण माना गया है। क्योंकि पदार्थोका अपने असाधारण स्वभावके साथ व्यभिचार रहित होना हो रहा है। जैसे कि अग्निका असाधारण धर्म होता हुआ उष्णपना लक्षण है। बौद्धों द्वारा माने गये हेतुके त्रैरूप्यको असाधारणपना नहीं है। क्योंकि इस हेतुमें और उसके आभासरूप हो रहे हेत्वाभासमें भी उस त्रैरूप्यकी भले प्रकार उपपत्ति होना देखा जाता है। तिस कारण वह त्रैरूप्य तो हेतुका लक्षण मानना युक्त नहीं है, जैसे कि पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षव्यावृत्ति, असत्प्रतिपक्षपना और अबाधितपना इन पांच रूपोंका धर्म पाञ्चरुप्य या उक्त चाररूपोंका धर्म चातुरूप्य आदिक हेतुके लक्षण नहीं हैं।
कुत एव तदित्युच्यते
वह त्रैरूप्य हेतुका नहीं है, यह तुमने कैसे जाना ! ऐसी निज्ञासा होनेपर आचार्य उत्तर कहते हैं।
वक्तृत्वादावसार्वज्ञसाधने त्रयमीक्ष्यते। न हेतुत्वं विना साध्याभावासंभूष्णुतां यतः ॥ १२६ ॥
देखिये, बुद्धको असर्वज्ञपना साधनेपर वक्तापन पुरुषपन आदि हेतुओंमें वे तीनों रूप देखे जा रहे हैं। किन्तु साध्यके न रहनेपर हेतुका नहीं होनापनरूप अन्यथानुपपत्तिके विना वक्तृत्व आदिमें हेतुपना नहीं है । जिस कारण कि हेतुके त्रैरूप्यलक्षणका वक्तृत्व आदिमें व्यभिचार है । अतः त्रैरूप्य हेतुका असाधारणधर्म न होता हुआ लक्षण नहीं बन सकता है।
___ इदमिह संपधार्य त्रैरूप्यमानं वा हेतोर्लक्षणं विशिष्टं वा त्रैरूप्यमिति ? प्रथमपक्षे न तदसाधारणं हेत्वाभासेपि संभवादलक्षणमेव । बुद्धो सर्वज्ञो वक्तृत्वादे रथ्यापुरुषवदित्यत्र हेतोः पक्षधर्मत्वं, सपक्षे सवं, विपक्षे वाऽसत्वं । सर्वज्ञो वक्ता पुरुषो वा न दृष्ट इति।म च गमकत्वमन्यथानुपपनत्वविरहात् । "
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