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तत्वार्थ लोकवार्तिक
घट जाता है । और योगविभाग कर केवल अनिन्द्रियका आकर्षण करनेसे अनिन्द्रियजन्य अभिमुख नियत अर्थका बोध करना यह लक्षण स्वार्थानुमानरूप अभिनिबोध में घट जाता है । अथवा अभिनिबोध नामके लक्ष्य वाक्यका ही योगविभागकर अभि, नि, बोध, एव अमिनिबोधः अभिमुख होकर नियमित अर्थको जान लेना ही स्वार्थानुमानरूप अभिनिबोध है । " प्रतिलक्ष्यं लक्षणोपप्लवः " अर्थात् प्रत्येक लक्ष्य में लक्षणका उपप्लव यानी व्यक्तिरूपसे न्यारे न्यारे लक्ष्यमें व्यक्तिरूपसे न्यारे न्यारे लक्षणका रहना अभीष्ट है ।
ननु नैकलक्षणालिंगालिंगिनि ज्ञानमनुमानं यदभिनिबोध शब्देनोच्यते । किं तर्हि । त्रिरूपा लिंगानुमेये ज्ञानमनुमानमिति परमतमुपदर्शयन्नाह ;
बौद्धोंका पूर्वपक्ष है कि अन्यथानुपपत्तिरूप एक लक्षणवाले हेतुसे लिङ्गीमें ( विषये सप्तमी ) ज्ञान होना अनुमान नहीं है, जो कि अभिनिबोध शद्वसे कहा जाता है । तो क्या है ? ऐसी दशामें हम बौद्ध कहते हैं कि पक्षमें रहना १ सपक्ष में ठहरना २ और विपक्षसे व्यावृत्त रहना ३ इन तीन रूपवाले लिङ्गसे अनुमान करने योग्य साध्य में ज्ञान होना अनुमान कहा गया है। इस प्रकार दूसरे बौद्धों के मतको दिखलाते हुये आचार्य महाराज उत्तरपक्षका स्पष्ट कथन करते हैं ।
निश्चितं पक्षधर्मत्वं विपक्षेऽसत्त्वमेव च ।
सपक्ष एव जन्मत्वं तत्त्रयं हेतुलक्षणम् ॥ १२४ ॥ केचिदाहुर्न तद्युक्तं हेत्वाभासेपि संभवात् । असाधारणतापायालक्षणत्वविरोधतः ।। १२५ ।
संदिग्ध साध्यवाले पक्षमें निश्चितरूपसे वृत्ति होना और निश्चित साध्याभाववाले विपक्षमें हेतुका असत्व ही होना तथा निश्चित साध्यवाले सपक्षमें आधार आधेयभावरूपसे जन्म लेकर ठहरना वे तीनों ही हेतुके लक्षण हैं, इस प्रकार कोई बौद्ध कह रहे हैं । किन्तु यह उनका कहना युक्तिपूर्ण नहीं है । क्योंकि हेत्वाभासमें भी वह लक्षण सम्भव रहा है । लक्ष्यके अतिरिक्त अन्य पदार्थों में नहीं विद्यमान रहनेवाले ऐसे असाधारणधर्मको लक्षण कहते हैं । असाधारणपना न होनेसे रूपको हेतुके लक्षणपनका विरोध है । न्यायदीपिकामें नैयायिकके माने गये लक्ष्यके असाधारण धर्मवचनरूप लक्षणका खण्डन किया है। उसका भाव यही है कि "असाधारण धर्मवचनं लक्षणं" इसमें वचन यानी बोलने की कैद क्यों लगाते हो ! यों तो लक्ष्यधर्मीक वचनके साथ लक्षणधर्मके वचनका समानाधिकरणपना नहीं बन सकेगा । आत्माका लक्षण ज्ञान किया जाय, यहां नैयायिकों के कथन अनुसार आत्मा के असाधारण धर्मस्वरूप ज्ञानका बोलना आवश्यक पडेगा । तब तो "ज्ञानम्" इस प्रथमत के साथ आत्मनि या आत्मनः कहना पडेगा । आत्मामें ज्ञान है । या आत्माका ज्ञान है।