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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
खरूपका निषेध करनेपर स्थिति होना असंभव है और वस्तुके विशेष स्वरूपका सम्भव न माननेपर पूर्वस्वभावोंका त्याग और उत्तर स्वभावोंका ग्रहण करना नहीं बनता है तथा तिस परिणामके न होनेपर क्रमयोगपद्यका अयोग होजानेसे इन केवल सामान्य और केवल विशेषमें अर्थक्रिया होनेकी व्यवस्था नहीं होगी। इस कारण किसी भी सामान्य एकान्तको अथवा केवल विशेष एकान्तको वस्तुपना नाममात्रको भी नहीं है जैसे कि दोनोंसे रहित खरविषाण अवस्तु है, उसीके समान विशेषरहित सामान्य या सामान्यरहित विशेष भी अवस्तु है ( निर्विशेष हि सामान्यं भवेत्खरविषाणवत् सामान्य रहितत्वाच्च विशेषस्तद्वदेव हि ) यहां वस्तुका व्यापक अर्थक्रिया और अर्थक्रियाका व्यापक क्रमयोगपद्य है तथा क्रमयोगपद्योंके व्यापक स्थितिपूर्वक पूर्वापर स्वभावोंके त्याग उपादान हैं । उन त्याग उपादानोंका व्यापक सामान्यविशेष आत्मकपना है । अन्तिम व्यापकके न माननेसे पहिलेके सब व्याप्य न माने जासकेंगे । ऐसी दशामें कोई भी अर्थक्रिया नहीं बन सकती है । अर्थक्रियाके विना फिर वस्तुपन कहां रहा है।
न हि सामान्य विशेषनिरपेक्ष कांचिदप्यर्थक्रियां संपादयति, नापि विशेषः सामान्यनिरपेक्षः, सुवर्णसामान्यस्य कटकादिविशेषाश्रयस्यैवार्थक्रियायामुपयुज्यमानत्वात् कटकादिविशेषस्य च सुवर्णसामान्यानुगतस्यैवेति सकलाविकल जनसाक्षिकमवसीयते । तद्वदिह ज्ञानसामान्यस्य मत्यादिविशेषाक्रांतस्य स्वार्थक्रियायामुपयोगो मत्यादिविशेषस्य च ज्ञानसामान्यान्वितस्येति युक्ता ज्ञानस्य मत्यादिषु प्रत्येकं परिसमाप्तिः । ततश्च मत्यादिसमूहो ज्ञानमित्यनिष्टोर्थो निवर्तितः स्यात् ।
___ अकेला सामान्य अपने विशेषोंकी नहीं अपेक्षा रखता हुआ किसी भी अर्थक्रियाका संपादन नहीं कर सकता है । ब्राह्मण, म्लेच्छ, भोगभूमियां, आदि विशेषव्यक्तियोंसे रहित सामान्य मनुष्य कोई वस्तु नहीं है फिर भला वह अर्थक्रियाको कैसे करेगा ? तथा अकेला विशेष भी सामान्यकी नहीं अपेक्षा रखता हुआ किसी भी अर्थक्रियाको नहीं बना सकता है, जैसे कि मनुष्यपनेसे रहित ब्राह्मण आदिक व्यक्तियां न कुछ होती हुई किसी कामकी नहीं हैं। खडुआ, बरा, हंसुली आदि विशेष परिणतियोंके आश्रय होता हुआ ही सुवर्ण सामान्य अर्थक्रियाको करनेमें उपयुक्त हो रहा है, तथा कडे, बाजू आदिक विशेष भी सुवर्णपन सामान्यसे अन्वित हो रहे संते ही अर्थक्रिया करनेमें उपयोगी बन रहे हैं। यह एक जीवको भी न छोडकर अविकलरूपसे सम्पूर्ण मनुष्योंकी साक्षी ( गवाह ) पूर्वक निश्चित किया जा रहा है । उसीके समान इस प्रकरणमें मति आदिक विशेषोंसे घिरे हुये ही ज्ञानसामान्यका प्रमितिरूप अपनी अर्थ क्रिया करनेमें उपयोग हो रहा है और ज्ञान सामान्यासे अन्वित हो रहे हुये मति आदि विशेषोंका अपनी अपनी अर्थक्रिया करनेमें लक्ष्य लग रहा है। इस कारण कारिकाके अनुसार ज्ञानशब्दकी मति, श्रुत, आदिक प्रत्येकमें चारों ओरसे