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________________ २३२ तत्त्वार्थ लोकवार्तिके त्वको और विलक्षणताको सिद्ध नहीं कर सकते हैं। जिससे कि हमारे एकत्वग्राही या सादृश्यग्राही प्रत्यभिज्ञान में बाधा उपस्थित हो सके । नित्यानां विप्रकृष्टानामभावे भावनिश्चयात् । कुतश्चिद्याप्तिसंसिद्धिराश्रयेत यदा तदा ॥ ६८ ॥ नेदं नैरात्मकं जीवच्छरीरमिति साधयेत् । प्राणदिमत्त्वतोस्यैवं व्यतिरेकप्रसिद्धिः ॥ ६९ ॥ जगत् में कालत्रयवर्ती नित्यपदार्थोंका और स्वभाव, देश, कालसे व्यवधानको प्राप्त हो हे पदार्थों का अभाव माननेपर ही सत्पनेका निश्चय हो रहा है । इस प्रकार किसी विपक्षव्यावृत्ति रूप व्यतिरेकके बलसे व्याप्तिकी भले प्रकार सिद्धि होना आश्रित करोगे तब तो व्यतिरेकी हेतुसे साध्यकी सिद्धि हो जाना बौद्धोंने स्वीकृत कर लिया । ऐसी दशा में यह प्रसिद्ध व्यतिरेकी अनुमान भी सिद्ध हो जायगा कि यह रोग शय्यापर पडा हुआ जीवित शरीर ( पक्ष ) आत्मरहित नहीं है ( साध्य ) । क्योंकि श्वास, निश्वास, नाडी चलना, उष्णता, स्वर, आदिसे सहित है ( हेतु ) | सात्मक नहीं हैं, वह प्राण आदिसे युक्त नहीं हैं। जैसे कि डेल, घडा, पट्टा आदि ( व्यतिरेक दृष्टान्त ) इस प्रकार व्यतिरेककी प्रसिद्धि हो जानेसे यहां आत्मसहितपना सिद्ध करा दिया जा सकेगा । किन्तु बौद्धोंने व्यतिरेकी हेतुओंसे अनुमान होता हुआ माना नहीं है । बौद्धोंको अपसिद्धान्त दोषसे भयभीत होना चाहिये । यथा विप्रकृष्टानां नित्याद्यर्थानामभावे सत्त्वस्य हेतोः सद्भावनिश्चयस्तद्व्याप्तिसिद्धिंनिबंधनं तथा विप्रकृष्टस्य आत्मनः पाषाणादिष्वभावे प्राणादिमत्त्वस्य हेतोरभाव निश्रयोपि तद्व्याप्तिसिद्धेर्निबंधनं किं न भवेत् १ यतो व्यतिरेक्यपि हेतुर्न स्यात् । न च सत्वादस्य विशेषं पश्यामः सर्वथागमकत्वागमकत्वयोरिति प्राणादिमत्वादे व्यास्यसिद्धिसुपयतां सवादेरपि तदसिद्धिर्बलादापतत्येव । ततो न क्षणिकत्वं सर्वथा विलक्षणत्वं चार्थानां सिद्ध्यति विरुद्धत्वाच्च हेतोः । तथाहि जिस प्रकार व्यवहित हो रहे नित्य, सदृश, स्थूल, आदि पदार्थों के अभाव होनेपर सत्त्व हेतुके सद्भावका निश्चय होना उन क्षणिकत्व और विलक्षणत्वरूप साध्यके साथ सत्वहेतुकी व्याप्ति सिद्ध हो जानेका कारण है, अथवा नित्य, स्थूल, साधारण, सदृश, अर्थोंमें क्षणिकपन या सदृशपनके न होनेपर सत्त्वके रहनेकी बाधाका निश्चय होना उनकी व्याप्ति बन जानेका कारण है, उसी प्रकार पत्थर, ईंट, किवाड, आदि पदार्थोंमें विवादापन्न होकर व्यवहित हो रहे आत्माके मा होनेपर पाषाण आदिमें प्राण आदिसे सहितपन हेतुके अभावका निश्चय करना भी उन
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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