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तत्वार्यलोकवार्तिके
प्रत्यभिज्ञानके विषय दृष्टव्य ( प्रत्यभिज्ञेय ) अर्थका सर्वत्र सर्वदा उपलम्भ हो रहा है, अनुपलम्म नहीं है।
तदेवं न प्रत्यक्षस्वभावानुपलब्धिर्वा बाधिका ।
तिस कारण इस प्रकार प्रत्यक्ष योग्य स्वभाववाले अर्थकी अनुपलब्धि तो प्रत्यभिज्ञानको बाधा करनेवाली नहीं ठहरी।
यत्सत्तत्सर्व क्षणिकं सर्वथैव विलक्षणं । ततोऽन्यत्र प्रतीघातात्सत्त्वस्यार्थक्रियाक्षतेः ॥ ६४ ॥ अर्थक्रियाक्षतिस्तत्र क्रमवृत्तिविरोधतः । तद्विरोधस्ततोनंशस्यान्यापेक्षाविधाततः ॥६५॥ इतीयं व्यापका दृष्टिनित्यत्वं हंति वस्तुनः। सादृश्यं च ततः संज्ञा बाधिकेत्यपि दुर्घटम् ॥६६॥
बौद्ध कह रहे हैं कि इस ढंगकी कई व्याप्तियां बनी हुई हैं कि जे जे सत् हैं वे सभी क्षणिक हैं अर्थात् नित्य नहीं हैं अथवा जो जो सत् है वह सभी प्रकारों करके एक दूसरेसे विलक्षण है अर्थात् कोई भी किसीके सदृश नहीं है। उससे अतिरिक्त अन्य स्थानोंमें सत्पनेका व्याघात हो जानेसे अर्थक्रियाकी क्षति है। क्योंकि व्यापक हो रही अर्थक्रियासे सत्त्व व्याप्त हो रहा है। नित्य या सदृश पदार्थमें अर्थक्रिया न होनेसे परमार्थ सत्पनेका व्याघात हो जाता है । तथा उस सर्वथा नित्य या सदृशपदार्थमें क्रम और युगपत्पनेसे प्रवृत्ति होनेका विरोध होनेसे अर्थक्रियाकी हानि हो जाती है। क्योंकि अर्थमें क्रम या योगपद्यद्वारा प्रवृत्ति होनेसे अर्थक्रिया व्याप्त हो रही है नित्यपदार्थमें क्रम और युगपत्पनसे जब प्रवृत्ति नहीं हो रही है तो अर्थक्रिया भी नहीं हो सकती है। व्यापकके न होनेपर व्याप्य भी नहीं रहता है । तिस कारण उस नित्यपने के साथ क्रमवृत्तिपनका विरोध है । अंशोंसे रहित क्षणिक, विलक्षण, स्वलक्षण पदार्थको अन्य कारणोंकी अपेक्षाका विधात हो रहा है । इस प्रकार यह व्यापककी अनुपलब्धि हो रही है, जो कि वस्तुके नित्यपन
और सदृशपनको नष्ट कर देती है । तिस कारण व्यापकानुपलब्धि इन एकत्व प्रत्यभिज्ञान और सादृश्य प्रत्यभिज्ञानकी बाधक खडी हुई है । आचार्य कहते हैं कि यह भी बौद्धोंका कहना घटित नहीं हो सकता है।
सत्वमिदमर्यक्रियया व्याप्तं सा च क्रमाक्रमाभ्यां तौ चाऽक्षणिकात्सदृशाच निवर्वमानौ स्वव्याप्यामर्थक्रियां निवर्तयतः। सा निवर्तमाना स्वव्याप्यं सत्त्वं निवर्तयतीति.