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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः संवादो बाधवैधुर्यनिश्चयश्चेत्स विद्यते । सर्वत्र प्रत्यभिज्ञाने प्रत्यक्षादाविवांजसा ।। ६०॥ प्रत्यक्षं बाधकं तावन्न संज्ञानस्य जातुचित् तद्भिन्नगोचरत्वेन परलोकमतेरिव ॥ ६१ ॥ यत्र प्रवर्चते ज्ञानं स्वयं तत्रैव साधकम् । बाधकं वा परस्य स्यान्नान्यत्रातिप्रसंगतः ॥ ६२ ॥ अन्य बाधक प्रमाणोंके रहितपनेका निश्चय हो जाना यदि सम्वाद कहा जायगा, वह तो प्रत्यक्ष आदिके समान सभी प्रत्यभिज्ञानोंमे निर्विघ्न विद्यमान है। देखिये । सबसे पहला प्रत्यक्ष प्रमाण तो प्रत्यभिज्ञानका कभी बाधक नहीं होता है । क्योंकि प्रत्यभिज्ञा द्वारा जाने गये विषयसे भिन्न हो रहे पदार्थको प्रत्यक्षज्ञान विषय करता है । जैसे कि अनुमान द्वारा हुई परलोककी ज्ञप्तिका बाधक प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं होता है। जो कोई ज्ञान जिस विषयमें स्वयं प्रवर्त्त सकता है । वह ज्ञान उस ही विषयमें साधक अथवा बाधक हो सकेगा। दूसरे अपने अविषयमें साधक या परपक्षका बाधक न हो सकेगा । अन्यथा अतिप्रसंग हो जायगा। यानी समुद्र हंसके समान आगमज्ञानी विद्वान्के श्रुतज्ञानमें कूपमण्डूकके समान दृष्ट या प्रयुक्त विषयपर ही अभिमान करनेवाले विज्ञानवेत्ताओंका प्रत्यक्ष भी बाधक हो जायगा। लोकमें भी यह बात प्रसिद्ध है कि व्याकरणको जाननेवाला शबके साधु असा. धुपनका साधक या बाधक हो जाता है। किन्तु वैद्यक या ज्योतिषके विषयको साधने अथवा बाधनेके लिये अपनी टांग नहीं अडा सकता है। अदृश्यानुपलब्धिश्च बाधिका तस्य न प्रमा। दृश्या दृष्टिस्तु सर्वत्रासिद्धा तगोचरे सदा ॥ ६३ ॥ प्रत्यभिज्ञान द्वारा जाने गये विषयका निषेध करनेके लिये यदि बौद्ध लोग अनुपलब्धिको बाधक खडा करेंगे उसमें हमारे दो विकल्प उठते हैं । प्रथम नहीं देखने योग्य पदार्थोकी अनुपलब्धि तो उस प्रत्यभिज्ञानकी बाधक होती हुई प्रमाण नहीं है। जैसे कि परमाणु, पिशाच, आकाश, आदि अदृश्य पदार्थोकी अनुपलब्धि होना इनके अस्तित्वका बाधक नहीं है। अभावको जाननेमें अदृश्यानुपलब्धि प्रमाण नहीं मानी गई है । अतः अदृश्यानुपलब्धि तो प्रत्यभिज्ञानका बाधक नहीं है। हां, दूसरी दृश्यकी अनुपलब्धि अमावको सिद्ध करती हुई प्रत्यभिज्ञानकी बाधक हो सकती है। किन्तु उस प्रत्यभिज्ञानके विषयमें दृश्यकी अनुपलब्धि तो सर्वत्र सर्वदा असिद्ध है। भावार्थ
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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