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तस्वार्थ लोकवार्तिके
तयालंबितमन्यचेत्साप्तमन्यत्स्वलक्षणं । प्रत्यक्षेणानुमानेन किं तदेव भवन्मते ॥ ५५॥
यदि बौद्ध यों कहें कि उस प्रत्यभिज्ञान करके आलम्बन किया गया पदार्थ [ सामान्य ] अन्य है और प्रत्यभिज्ञानसे जानकर पुनः प्राप्त किया गया स्वलक्षण पदार्थ भिन्न है । अतः प्रत्यक्ष का दृष्टान्त सम नहीं है । इस प्रकार बौद्धोंके कहनेपर तो आचार्य महाराज कटाक्ष करते हैं कि आप बौद्धोंके मतमें प्रत्यक्ष अथवा अनुमान प्रमाण करके क्या वहका वही पदार्थ प्राप्त किया जाता है ? बताओ । अर्थात् जब कि बौद्धोंने क्षणिक स्वलक्षणको ज्ञानका कारण माना है, तो पदार्थको जानकर कितनी भी शीघ्रतासे पकॅडनेवाला क्यों न ो उसके हाथमें वह पदार्थ नहीं आ सकता है, जो कि ज्ञानका कारण घना था । जैसे कि कोई बुद्धा अपने युवा अवस्थाके शरीरको नहीं प्राप्त कर सकता है । तथा सामान्यको जाननेवाले अनुमानद्वारा सामान्यमें ही प्रवृत्तिः नहीं होती है। किन्तु विशेष स्वलक्षणमें प्रवृत्ति होना माना है । ऐसी दशामें प्रत्यभिज्ञानद्वारा यदि वही आलम्बनीय पदार्थ न भी प्राप्त किया जाय तो भी प्रत्यक्षके समान प्रत्यभिज्ञामें सम्बादीपना घटित हो जाता है ।
गृहीतप्राप्तयोरेकाध्यारोपाचेत्तदेव तत् ।
समानं प्रत्यभिज्ञायां सः पश्यतु सद्धियः ॥ ५६ ॥ ___ यदि बौद्ध यों कहें कि ज्ञानके द्वारा ग्रहण किये गये आलम्बन पदार्थ और हस्त प्राम किये गये स्वलक्षण वस्तुके एकपनका अध्यारोप कर देनेसे वह आलम्बन करने योग्य ही पदार्थ प्राप्त किया गया हो जाता है, यों कहनेपर तो ग्रन्थकार कहते हैं कि प्रत्यभिज्ञानमें भी वह वही की बात समान है । सभी श्रेष्ठ बुद्धिवाले उसको देखलो अर्थात् प्रत्यभिज्ञानसे वही जानी हुई वस्तु प्रवृत्ति कर लेनेपर प्राप्त कर ली जाती है । यहां भी ज्ञात और प्राप्तव्य अर्थका एकत्वारोप सुलम है।
प्रत्यभिज्ञानुमानत्वे प्रमाणं नान्यथेत्यपि । तन्न युक्तानुमानस्योत्थानाभावप्रसंगतः ॥ ५७ ॥ तत्र लिंगे तदेवेदमिति ज्ञानं निबन्धनम् । लैंमिकस्यानुमानं चेदनवस्था प्रसज्यते ॥ ५८ ॥ लिंगप्रत्यवमर्शेण विना नास्त्येव लैंगिकम् । विभिन्नः सोनुमानाचेलमाणांतरमागतम् ॥ ५९॥