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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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तहां जो अन्य प्रमाणोंकी समीचीन प्रवृत्ति होनारूप सम्बाद माना जायगा, सो तो सम्वाद प्रत्यक्षमें नहीं सम्भव रहा है। इस प्रकार तुम्हारे प्रत्यक्षको भी प्रमाणता कहां रही ! भावार्थ-एक ज्ञानद्वारा जाने हुये विषयमें दूसरे प्रमाणोंका गिरना यदि संवाद है, तो प्रत्यक्ष भी प्रमाण नहीं बन सकेगा । कारण कि प्रत्यक्षके द्वारा जाने गये विषयमें अनुमान प्रमाणकी तो संगति नहीं है। क्योंकि प्रत्यक्षके आलम्बन कारणस्वरूप वस्तुभूत स्वलक्षणमें उस अनुमान प्रमाणकी वृत्ति नहीं है । बौद्धोंके मत अनुसार अनुमानज्ञान अवस्तुभूत सामान्यमें प्रवर्तता है। स्वलक्षणको अनुमान नहीं छूता है। " प्रमेयद्वैविध्यात् प्रमाणद्वैविध्यं " ऐसा बौद्धोंने माना है।
तत्राध्यक्षांतरस्यापि न वृत्तिः क्षणभंगिनि ।
तथैव सिद्धसंवादस्यानवस्था तथा न किम् ॥ ५३॥
उस प्रकृत प्रत्यक्षके क्षणिक विषयमें स्खलक्षणको जाननेवाले दूसरे प्रत्यक्षप्रमाणकी भी वृत्ति नहीं होती है । बौद्धोंने प्रत्यक्षका कारण खलक्षण माना है । पहिले एक ही प्रत्यक्षको उत्पन्न कराके जब स्खलक्षण नष्ट हो गया तो वह मरा हुआ स्खलक्षण भला दूसरे प्रत्यक्षको कैसे उत्पन्न करेगा ! दूसरी बात यह भी है कि पहिले प्रत्यक्षका सम्वादीपना दूसरे प्रत्यक्षकी प्रवृत्तिसे माना जाय, और दूसरे प्रत्यक्षका सम्वाद तिस ही प्रकार तीसरे प्रत्यक्षकी संगतिसे इष्ट किया जाय तभी प्रमाणता आसकेगी एवं तीसरेका चौये आदिसे सिद्ध किया जाय, ऐसी आकांक्षायें बढती जानेसे तिस प्रकार संवादका अनवस्था दोष क्यों नहीं होगा ! अर्थात बौद्धोंके ऊपर अनवस्था दोष मूलको क्षय करनेवाला लग गया।
प्राप्य स्वलक्षणे वृत्तिर्यथाध्यक्षानुमानयोः ।
प्रत्यक्षस्य तथा किं न संज्ञया संप्रतीयते ॥ ५४॥
बौद्धोंके मतमें ज्ञान जिस विषयको जानता है, उसको आलम्बन कारण कहते हैं। और ज्ञानसे जानकर जिसको हस्तगत किया जाता है, वह प्राप्त करने योग्य स्खलक्षण प्राप्य कारण है। पुस्तकको ठीक पुस्तक जाननेवाले सम्यग्ज्ञानकी दशामें प्राप्य और आलम्बनकारण दोनों एक ही है। किन्तु सामान्यको जाननेवाले अनुमान और अतत्को तव जाननेवाले मिथ्याज्ञानोंको अवस्थामें प्राप्य
और आलम्बन न्यारे न्यारे हो जाते हैं। प्रत्यक्ष और अनुमान दोनोंमेंसे प्रत्यक्षज्ञानके द्वारा जैसे प्राप्त करने योग्य स्वलक्षण वस्तुमें बाताकी प्रवृत्ति होना देखा जाता है । तिस ही प्रकार प्रत्यभिज्ञाके द्वारा वास्तविक स्वलक्षणमें प्रवृत्ति होना क्या भले प्रकार नहीं देखा जाता है ! अर्थात् प्रत्यभिज्ञानसे भी उस ही या उसके सदृश पुस्तक, औषधि, आदि ठीक ठीक वस्तुओंमें प्रमाताओंकी प्रवृत्तियां हो रही प्रतीत होती हैं।
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