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तत्वार्थचिन्तामणिः
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हुआ कि जिस अर्थमें अनुभव प्रवर्त्तता है, वहां स्मरणावरणका क्षयोपशमस्वरूप अंतरंग कारण होनेपर और दृष्टपदार्यके सजातीय अर्थका दर्शन, अमिलाषा, प्रकरण, शोक, आदिक बहिरंग कारणोंके होनेपर स्मरणकी उत्पत्ति हो जाती है। हां, फिर उनके अभाव होनेपर कभी नहीं स्मरण होता है । अन्यथा अतिप्रसंग हो जायगा अर्थात् देखे हुये सबका या अदृष्टपदार्थोका भी स्मरण हो जावेगा । अतः कहना पडता है कि स्वयं अनुभूत कियी जा चुकी भी अनादिकालके द्रव्यकी पर्यायोंमें किसीको भी सभी स्मरण नहीं हो जाते हैं तथा उस स्मरणको कारण मानकर होनेवाला प्रत्यभिज्ञान भी सभी पर्यायोंमें नहीं हो पाता है । क्योंकि स्मरणके अनुसार ( अतिक्रम नहीं कर )
और प्रत्यभिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमरूप अंतरंग कारणके अनुकूल होनेपर ( अनतिक्रम्य ) उस प्रत्यभिज्ञानका जन्म होता है । अतः उस प्रत्यभिज्ञानकी विचित्रता युक्तिओंसे बन जाती है। जब कि उस प्रत्यभिज्ञानका आवरण करनेवाले कर्मके क्षयोपशमस्वरूप योग्यतायें विलक्षण प्रकारकी हो रही है, तो कार्योंके विचित्र होनेमें क्या चित्र ( आश्चर्य ) है ! कार्योसे ही तो कारणोंका अनुमान कर लिया जाता है।
कुतः पुनर्विचित्रा योग्यता स्यादित्युच्यते
फिर यह विचित्र प्रकारकी योग्यता किस निमित्तसे हो जावेगी ! ऐसी जिज्ञासा होनेपर आचार्यों द्वारा समाधान कहा जाता है।
मलावृतमणेळक्तिर्यथानेकविधेक्ष्यते । कर्मावृतात्मनस्तद्वद्योग्यता विविधा न किम् ॥ ४९ ॥
मलसे ढकी हुई मणिकी मलके कैई तारतम्यसे दूर हो जानेपर जैसे अनेक प्रकारकी अमिव्यक्ति ( स्वच्छता ) देखी जाती है, उसी प्रकार पूर्वबद्ध कर्मसे ढके हुये आत्माकी क्षयोपशमरूप योग्यता मी नाना प्रकारकी क्यों न होगी ? अवश्य होगी। सुवर्णको कई बार शुद्धा कया जाता है, तब कहीं उसकी शनैः शनैः योग्यता प्राप्त होती है। मणिको भी शाणपर या मसालोंसे धीरे धीरे स्वच्छ अवस्था में लाना पडता है।
स्वावरणविगमस्य वैचित्र्यान्मणेरिवात्मनः स्वरूपाभिव्यक्तिवैचित्र्यं न हि तद्विरुदं । तद्विगमस्तु स्वकारणविशेषवैचित्र्यादुपपद्यते । तद्विगमकारणं पुनद्रव्यक्षेत्रकालभवमावलक्षणं यदन्वयव्यतिरेकस्तत्संभावनेति पर्याप्तं प्रपंचेन । सादृश्यैकत्वप्रत्यभिज्ञानयोः सर्वया निरवद्यत्वात् ।
___ अपने आवरणोंके दूर होनेकी विचित्रतासे मणिका खच्छमाव जैसे विचित्र ढंगोंका हो जाता है। उसीके समान कोका अनेक कारणोंसे पृथक्भाव हो जानेकी विचित्रतासे बानमय