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तवार्थचिन्तामणिः
प्रत्यक्षवत्स्मृतेः साक्षाफले स्वार्थविनिश्चये। .... किं साधकतमत्वेन प्रामाण्यं नोपगम्यते ॥ ३५॥ पारंपर्येण हानादिज्ञानं च फलमीक्ष्यते । तस्यास्तदनुस्मृत्यंतर्याथार्थ्यवृत्तितोर्थिनः ॥ ३६॥
प्रत्यक्षके समान स्मतिका भी अव्यवहित फल जब अपना और अर्थका विशेष निश्चय करना नियत हो रहा है, तो फिर स्वार्थकी प्रमिति करनेमें प्रकृष्ट उपकारक होनेके कारण प्रत्यक्षको जैसे प्रमाण कहा जाता है, उसीके समान स्वार्थके निश्चय कराने में करण होनेसे स्मरणको प्रमाणपना क्यों नहीं खीकार किया जाता है ! और परम्परासे उस स्मरणज्ञानके फल भी प्रत्यक्षके फल समान हेयका परित्याग करना, उपादेयका ग्रहण करना, उपेक्षा करना, आदि या तद्विषयकज्ञान होते हुये देखे जा रहे हैं। क्योंकि अर्यकी अभिलाषा रखनेवाले जीवकी उस स्मृतिके अनुसार स्मरणके भीतर आये हुये अर्थमें यथार्थरूपसे प्रवृत्ति हो रही है। आंखोंको मचिकर या अंधेरेमें भी जीव स्मरण द्वारा अभीष्ट पदार्थकी प्राप्ति और अनिष्टपदार्थका परित्याग कर देते हैं।
ततो न योगोपि स्मृतेरप्रमाणत्वं समर्थयितुमीशः प्रत्यक्षादिप्रमाणरूपत्वं वा, ययो. क्तदोषानुषंगात् ।
तिस कारण नैयायिक और पातञ्जलमती भी स्मृतिके अप्रमाणपनका समर्थन करनेके लिये प्रभु नहीं हैं । अथवा स्मृतिको प्रत्यक्ष, अनुमान आदि स्वरूप भी नहीं सिद्ध कर सकता है अर्थात् आवश्यक माने गये प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंमें स्मृतिका अंतर्भाव नहीं हो सकता है । क्योंकि पूर्वमें कहे अनुसार दोषोंका प्रसंग होगा । यहांतक स्मृतिज्ञानको न्यारा प्रमाण साध कर मतिज्ञानरूप सिद्ध कर दिया गया है । अब प्रत्यभिज्ञानका विचार चलाते हैं।
प्रत्यभिज्ञाय च स्वार्थ वर्तमानो यतोर्थभाक् ।
मतं तत्मत्यभिज्ञानं प्रमाणं परमन्यथा ॥ ३७॥
जिस कारणसे कि ख और अर्थका प्रत्यभिज्ञान करके प्रवृत्ति कर रहा पुरुष अर्थीको प्राप्त करनेवाला हो रहा है, उस कारण वह दर्शन और स्मरणको कारण मानकर उत्पन्न हुआ प्रत्यमिज्ञान तो प्रमाण माना गया है। किन्तु जो दूसरा प्रत्यभिज्ञान यथार्थकी ब्राप्ति करानेवाला नहीं है। वह अन्यथा यानी अन्य प्रकार प्रमाणभास होकर प्रत्यभिज्ञानामास है।
तद्विधैकत्वसादृश्यगोचरत्वेन निश्चितं । संकीर्णव्यतिकीर्णत्वव्यतिरेकेण तत्त्वतः ॥ ३८ ॥