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तार्यचिन्तामणिः
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करना स्मृति आदिक ज्ञानों द्वारा साध्य कार्य है । अतः प्रवर्तकपना स्मृति आदिकोंमें है। हां, प्रत्यक्ष प्रवर्तकत्व में जैसे आकांक्षा, योग्यता, पुरुषार्थजन्यप्रवृत्ति, प्राप्ति ये मध्य में होते हुये आबश्यक हैं, वैसे ही स्मृति आदिकोंके प्रवर्तकपने में भी आकांक्षा आदिको मध्यवर्ती मानना चाहियेग नहीं तो प्रवृत्ति होने योग्य विषयका उपदर्शन करा देना ही ज्ञानका प्रवर्त्तकपना है। यह ज्ञानके गांठकी तो इतनी ठेव कहीं नहीं जायगी । प्रवृत्ति विषयार्थोपदर्शकत्वेन प्रमाणस्यार्थप्रापकत्वं
तत्र प्रत्यक्षमेव प्रवर्तकं प्रमाणं न पुनः स्मृतिरिति मतमुपालभते ।
तिन ज्ञानोंमे से एक प्रत्यक्षप्रमाण ही प्रवर्त्तक है । फिर स्मृति आदिक तो अर्थमें प्रवृत्ति करा - नेवाले नहीं हैं । इस मन्तव्यके ऊपर आचार्य उलाहना देते हैं कि-
अक्षज्ञानैर्विनिश्चित्य सर्व एव प्रवर्त्तते ।
इति ब्रुवन स्वचित्तादौ प्रवर्त्तत इति स्मृतेः ॥ १४ ॥
सम्पूर्ण ही जीव इन्द्रियजन्य ज्ञानों करके पदार्थोंका विशद निश्चयकर प्रवृत्ति करते हैं, इस प्रकार कहरहा बौद्ध अपने आत्मा, शरीर, आदिमें स्मृति से भी प्रवृत्ति कररहा है । इस कारण स्मृति भी प्रवर्त्तिका हुई । अर्थात् देवदत्त दर्पण में देखी हुई अपनी सूरत मूरतका स्मरणकर चित्रमें अपने प्रतिविम्बको देखता हुआ अपना स्मरण करलेता है । पहिली बाल्य कुमार अवस्थाओंका या I शरीर के अनेक भागोंका स्मरणकर प्रवृत्ति करता है। पूर्व के ज्ञानोंका या विचारोंका स्मरणकर वही, खाते के अनुसार देना लेना करता है । ध्यान, भावना, शोक, अभीष्टप्राप्ति, आदि प्रवृत्तियों में स्मृति ही कारण है ।
कथम्—
तो फिर बौद्धोंने स्मृतिको प्रवर्त्तक कैसे नहीं माना ! बताओ । उन्हे तो एक एक पद चलनेमें स्मृतिको प्रवर्त्तक कहना पडेगा । अन्यथा स्वकीयचित्त आदिमें स्मृतिसे भला प्रवृत्ति किस प्रकार हो सकेगी ! |
गृहीतग्रहणात्तत्र न स्मृतेश्वेत्प्रमाणता ।
धारावाह्यक्षविज्ञानस्यैवं लभ्येत केन सा ॥ १५ ॥ विशिष्टस्योपयोगस्याभावे सापि न चेन्मता । तद्भावे स्मरणोप्यक्षज्ञानवन्मानतास्तु नः ॥ १६ ॥