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तत्वार्यलोकवार्तिक
___किसीकी शंका है, जब कि मति, स्मृति, आदिकोंका नामनिर्देश न्यारा है । लक्षण भिन्न है, विषय भी मिन्न है, और मति आदि ज्ञानों द्वारा प्रतिभास होना पृथक् है, तो फिर मति आदिकोंको अनर्थान्तरपना कैसे है ! बताओ । ग्रन्थकार कहते हैं कि यदि ऐसी शंका करोगे तो:
कथंचिद्यपदेशादिभेदेप्येतदभिन्नता। ---- ... न विरोधमधिष्ठातुमीष्टे प्रातीतिकत्वतः ॥४॥
मति, आदिकोंका व्यवहार होना, लक्षण, आदि यद्यपि भिन्न भिन्न हैं, तो भी इनका अभेद है। विरोधको स्थापन करानेके लिये कोई समर्थ नहीं होता है। क्योंकि मति, स्मृति, आदिकोंमें एकसा मनन होना प्रतीतियों द्वारा निर्णीत हो रहा है। ऐसी दशामें छोटे छोटे अंश उपांशोंके भेद विचारे मूलपदार्थका भेद नहीं करा सकते हैं।
न हि व्यपदेशादिभेदेपि प्रत्यक्षव्यक्तीनां प्रमाणांतरत्वं परेषां, नाप्यनुमानादिव्यकीनामनुमानादिता खेष्टममाणसंख्यानियमव्याघातात् ।
___ रसना इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष, चक्षु इन्द्रियसे उत्पन्न हुआ प्रत्यक्ष, योगिका प्रत्यक्ष, आदि प्रत्यक्ष व्यक्तियोंके नामसंकीर्तन, लक्षण आदिका भेद होते हुए भी प्रत्येक प्रत्यक्षोंको न्यारा न्यारा मिन प्रमाणपना दूसरे नैयायिक आदि वादियोंने नहीं स्वीकार किया है। तथा अन्वयी हेतुसे, व्यतिरेकी हेतुसे, एवं पूर्ववत् आदि हेतुओंसे उत्पन हुये अनुमान अथवा खार्थ अनुमान, परार्थ अनुमानरूपसे अनुमानका इसी प्रकार न्यारे न्यारे शाद्वबोध आदि व्यक्तियों ( व्यक्तिपिंडों) का अवांतर भेद होते हुये भी न्यारा न्यारा अनुमान आगम आदिपना नहीं है । क्योंकि थोडे थोडेसे भेदका लक्ष्य कर यदि मिन मिन प्रमाण गिनाये जायेंगे तब तो अपने अभीष्ट प्रमाणोंकी संख्याके नियमका व्याघात हो जायगा।
प्रत्यक्षतानुमानादित्वेन वा व्यपदेशादिभेदाभावानदोष इति चेत् मतिज्ञानत्वेन सामान्य तस्तदभावादविरोधोस्तु । प्रातीतिकी ह्येतेषामभिन्नता कयंचिदिति न प्रतिक्षेपमईति ।
___सम्पूर्ण प्रत्यक्ष व्यक्तियोंको प्रत्यक्षपना एकसा है । और सभी स्वार्थानुमान, परार्थानुमान व्यक्तियोंको अनुमानपना वैसा ही है । व्याकरण, कोश, आप्तवाक्य आदि द्वारा शक्तिग्रह कर उत्पन्न हुये शाबोधोंको एकसा आगमपना है। इस कारण सामान्यरूपसे व्यपदेश, लक्षण आदिका मेद महीं है। अतः प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंकी अवांतर व्यक्तियोंको भिन्न भिन्न प्रमाण बन जानेका दोष नहीं आता है। ऐसा कहनेपर तो हम जैन भी मानते हैं कि सामान्यरूपसे मतिज्ञानपने करके उन व्यपदेश, लक्षण, आदिकोंका मति, स्मृति आदिमें अभाव है। इस कारण प्रकृतमें कोई विरोध न होओ। इन मति, स्मृति, आदिकोंका कथंचित अमिन्नपना प्रतीतियोंमें आरूढ हो रहा है। बतः इनके अभेदको खण्डन करने के लिये कोई समर्थ नहीं है।