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तच्चार्य लोकवार्तिके
। सर्वथा निर्विकल्पक माननेपर स्वार्थनिर्णय नहीं हो पाता है। छोटापन, बडापन, इष्ट अनिष्टपन, आदि लौकिक कल्पनायें ज्ञानमें भले ही नहीं होवें किन्तु शास्त्रोत कल्पनायें तो प्रत्येक ज्ञानमें पायीं जाती हैं । कल्पनाके विना धर्मोपदेश होना नहीं हो सकता है । खम्भे के समान बुद्धके मुखसे कोई भी शद नहीं निकल सकता है। श्रुतज्ञान भी द्रव्यरूपसे शद्व योजनात्मक है । वैशेषिकोंका 1 लक्षण ईश्वरप्रत्यक्षमें न जानेसे अव्याप्त है । सांख्य और मीमांसकों द्वारा माना गया भी प्रत्यक्षका लक्षण दोषग्रस्त है । सर्वज्ञके प्रत्यक्षका संकलन करना आवश्यक है । अव्यवहित रूपसे स्वार्थीका विशद व्यवसाय करना प्रत्यक्षज्ञान है । और स्व तथा अन्य अर्थोको अविशद जानना परोक्षप्रमाण है । इस प्रकार उक्त दो सूत्रोंसे यावत् सम्यग्ज्ञानोंका संग्रह हो जाता है ।
अक्षात्मापेक्षमक्षेन्द्रियहृदयदयोपेक्षपक्ष्णोति साक्षात् । काळक्षेत्रस्थभावावधिनियतपदार्थाश्च विश्वानभीक्ष्णं ॥ प्रत्यक्षं द्वादशांगाध्ययनपटुसमाकांक्षणीयं स्वतुल्यं । वैकल्याखिल्यधर्मोपहितविषयवित्र्याप्तये स्तान्मुमुक्षोः ॥
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अब मतिज्ञानके प्रकारोंको प्रगट करनेके लिये श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्र कहते हैं
मतिः स्मृतिः संज्ञा चिंताभिनिबोध इत्यनर्थांतरम् ॥ १३ ॥
मतिज्ञान, स्मरणज्ञान, प्रत्यभिज्ञान, व्याप्तिज्ञान, और अनुमान, इत्यादि प्रकारके ज्ञान अर्थातर नहीं हैं। ये सर्व मतिज्ञान ही हैं। मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमका निमित्त पाकर अर्थकी उपfor करना सबमें एकता है । यों थोडासा अवांतर भेद पड जाना न्यारी जातिका संपादन नहीं करा सकता है ।
किमर्थमिदमुच्यते । मतिभेदानां मतिग्रहणेन ग्रहणादन्यथातिप्रसंगात् ।
यह सूत्र किस प्रयोजनको साधनेके लिये कहा जाता है ! इसके उत्तर में आचार्य कहते हैं। कि मतिज्ञान के भेदप्रभेदोंका मतिके ग्रहण करनेसे ग्रहण हो जाता है । अन्यथा यानी मतिशद करके यदि इन्द्रिय, अनिन्द्रियजन्य विशद प्रत्यक्षोंको ही पकड़ा जायगा, तो अतिप्रसंग हो जायगा । अर्थात् पचासों प्रमाण मानने पडेंगे। थोडे थोडेसे भेदोंको डाल कर पचासों प्रमाण बन जावेंगे, तब भी पूरा नहीं पडेगा । प्रतिपादक गुरुके द्वारा प्रतिपाद्य शिष्यको सुलभतासे समझानेके लिये प्रमाणोंकी संख्याव्यवस्था नहीं हो सकेगी ।
मत्यादिष्ववबोधेषु स्मृत्यादीनामसंग्रहः । इत्याशंक्याह मत्यादिसूत्रं मत्यात्मनां विदे ॥ १ ॥