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तत्वार्थचिन्तामणिः
तत्स्वार्थव्यवसायात्म-त्रिधा प्रत्यक्षमंजसा। ज्ञानं विशदमन्यत्तु परोक्षमिति संग्रहः ॥ ३९॥
तिस कारण सिद्ध हुआ कि स्व और अर्थका विशदनिश्चय करना स्वरूप प्रत्यक्ष है । वह अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञानके भेदोंसे तीन प्रकारका है। साक्षातरूपसे स्वार्थको विशद जाननेवाला ज्ञान तो प्रत्यक्ष है। और अन्य अविशद ज्ञान परोक्ष हैं । इस प्रकार सभी सम्यग्वानोंका प्रत्यक्ष और परोक्ष दो प्रमाणोंमें संग्रह हो जाता है । इस प्रकार दो सूत्रोंका उपसंहार हुआ। क्रमका परिवर्तन तो कारणवश हुआ सह्य है।
इस सूत्रका सारांश। इस सूत्रमें प्रकरणोंका क्रम इस प्रकार है कि प्रथम ही एक वचन बानशब्दकी अनुवृत्तिकी अपेक्षासे सूत्रमें एकवचन करना साधा है । ज्ञानका संबंध हो जानेसे महासताका सामान्यरूपसे आलोचन करनेवाले दर्शनोंमें अतिव्याप्ति नहीं हुई। प्रमाणका संबंध हो जानेसे इन पांचों ज्ञानोंमें अप्रमाणपना नहीं समझा जाता है । सम्यक्शदका फल विभंगज्ञानकी व्यावृत्ति करना है। केवल आत्माकी अपेक्षासें जो उत्पन्न होता है, वह प्रत्यक्ष है। अन्य आचार्योका भी यही सिद्धान्त है। श्री अकलंकदेव महाराज द्रव्य और पर्यायरूप अर्थ तथा खको व्यवसाय करनेवाले ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं। यों संम्पूर्ण पदार्थोको युगपत् जाननेवाला अतीन्द्रियप्रत्यक्ष भी संग्रहीत हो जाता है । बाधकप्रमाणोंके असम्भव हो जानेसे किसी भी पदार्थकी सत्ता सिद्ध हो जाती है। ज्ञानावरणके क्षय हो जानेपर सर्वज्ञका प्रत्यक्ष बन जाता है। सांव्यवहारिक भी प्रत्यक्ष है। केवलज्ञान निर्दोष है । बौद्धोंका माना गया प्रत्यक्षका लक्षण ठीक नहीं है। कल्पनाकी ठीक ठीक परिभाषा उनसे नहीं हो सकी है । सद्भूत कल्पना कोई बुरी वस्तु नहीं है, तो फिर उससे क्यों भयभीत होते हो ? स्वार्थका व्यवसाय करना सबसे बढिया कल्पनाका लक्षण है, जो कि प्रत्यक्ष और परोक्षमें घटित हो जाता है । मतिज्ञान द्वारा जाने हुये अर्थसे अर्थान्तरको जानना श्रुतज्ञान है । अतः बौद्धोंका लक्षण असम्भवी है । संकल्प, विकल्पोंकी अवस्थाका संकोच कर देनेपर भी अर्थाकार रूप विकल्प होना ज्ञानमें देखा जाता है, तभी तो पीछे स्मरण होना बनता है । बाहिरके अभ्यास, प्रकरण, आदिक उपाय अंतरंग स्मरण करानेमें उपयोगी नहीं हो सकते हैं । निश्चयनयसे विचारा जाय तो अभ्यास आदिक सर्व ज्ञानरूप ही हैं । निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे जैसे सविकल्पक ज्ञान उत्पन्न हो जाता है, वैसे ही निर्विकल्प अर्थसे सीधा सविकल्पक ज्ञान हो जावेगा। सभी ज्ञानोंमें शब्दयोजना, जाति, आदिका उल्लेख करना, रूप कल्पना नहीं है। हां, शब्दजन्य आगम ज्ञानमें ऐसी कल्पना संभवती है। शद्बकी अपेक्षा विना ही अव्यक्त अनन्त अर्थोके अनेक प्रकारोंसे निश्चय हो जाते हैं । इन बौद्धोंने भी पांच विज्ञानोंको , वितर्क, विचारसहित माना