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तत्वार्थकोकवार्तिके
संकेत ग्रहण किये जा चुके, उसके वाचक शब्दोंका स्मरण करेगा और चित्तमें संकल्पकर धकार टकार वर्णोको अर्थमें जोडेगा, तब कहीं निर्णय होगा और ये सम्पूर्ण क्रियायें निश्चय कर चुकनेपर हो सकती हैं । इस ढंगसे अन्योन्याश्रय क्यों नहीं होगा ? तथा जो बौद्ध ऐसा कह रहे हैं कि अपने वाचक शब्द विशेषोंकी अपेक्षा रखते हुये ही पदार्थ भला निश्चयों करके निश्चित किये जाते हैं । यह बौद्ध अर्थका निर्णय करता हुआ ही उसके वाचक हो रहे विशेष शद्बोंका स्मरण करता है । स्मरण नहीं करता हुआ तो शबोंको अर्थके साथ जोड सकता है। और नहीं जोडता हुआ अर्थका निश्चय नहीं कर पाता है । इस प्रकार यह जगत्को निर्वकल्पक हो रहे की अभिलाषा करता है । अर्थात् जब शब्दका स्मरण, शब्दकी योजना, आदि नहीं हो सकते हैं तो जगत्मेंसे विकल्प करना उठ जायगा । दूसरी बात यह है कि बौद्धोंके यहां यह कथन अपने वचनोंसे ही विरुद्ध पड़ेगा। भावार्थ-पहिले तो निर्विकल्पक प्रत्यक्ष द्वारा शब्दयोजना, संकेत स्मरण, जाति आदिसे रहित अर्थका ज्ञान होना मानलिया है । और अब उस अर्थके वाचक शद्वोंके द्वारा ही अर्थका व्यवसाय होना माना जाता है । अथवा पहिले निर्विकल्पकको प्रत्यक्ष मानकर पीछे स्वार्थव्यवसायरूप स्पष्ट कल्पनाको प्रत्यक्षमें व्यवस्थित होना मान लिया गया है । और भी तीसरी बात यह है कि---
स्वाभिधानविशेषस्य निश्चयो यद्यपेक्षते । खाभिलापांतरं नूनमनवस्था तदा न किम् ॥ २२ ॥ गत्वा सुदूरमप्येवमभिधानस्य निश्चये ।
खाभिलापानपेक्षस्य किमु नार्थस्य निश्चयः ॥ २३ ॥ बौद्धोंके विचार अनुसार जब सभी अर्थ अपना निश्चय करानेमें अपने वाचक हो रहे विशिष्ट शद्वोंकी अपेक्षा करते हैं तो वह वाचक शब्द भी तो एक विशेष अर्थ हैं । उस शब्दरूप अर्थका निश्चय करनेके लिये भी अपने वाचक अन्य शद्रोंकी अपेक्षा की जायगी । इसी ढंगसे उस शब्दके भी वाचक शब्दस्वरूप पदार्थोका निश्चय करना यदि अपने वाचक अन्य शब्दोंकी अपेक्षा करता होगा तब तो नियमसे अनवस्था दोष क्यों नहीं होगा ? भावार्थ-देवदत्त नामके पुरुषका निर्णय करनेके लिये यदि दे और व तथा द एवं त्त शद्वोंकी अपेक्षा होगी और दे आदि शब्दरूप अर्थोके वाचक अन्य शद्बोंकी अपेक्षा होगी और उन अन्य शद्वोंके निर्णयार्थ भी वाचकान्तरोंकी आकांक्षा बढती जावेगी, इस ढंगसे रुपयासे रुपयेका क्रय करनेके समान अवश्य अनवस्था दोष हो जाता है । इस प्रकार बहुत दूर भी चलकर अपने वाचक शद्वोंकी नहीं अपेक्षा रखनेवाले शोंका निर्णय माना जायगा, यानी कुछ दूर जाकर वाचक शद्वोंका निर्णय उनके अभिधायक शद्वोंके विना भी हो जायगा मानोगे, तो हम कहते हैं कि यो पहिलेसे ही अर्थका निश्चय करना वाचक शब्दोंके