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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
नहीं है । बौद्धोंने जो यह कहा था कि अर्थोमें कल्पनायें नहीं हैं । उसपर हमारा यह कहना है कि वस्तुभूत अर्थोमें जाति, गुण आदिक कल्पनायें भी विद्यमान हैं। तुमने स्वयं अभी जाति गुण आदिको वस्तु, सद् स्वीकार किया है । उन अर्थोके प्रकाशमान होनेपर वे सामान्य विशेष गुण आदिक भी प्रतिभास जाते हैं । तिस कारण जाति, द्रव्य, आदि स्वरूप कल्पनाके साथ तदात्मक हो रहे अर्थसे उत्पन्न हुआ अर्थका दर्शन सविकल्पक है, यह प्रत्यक्ष प्रमाणसे ही सिद्ध है । सूंघने, खाद लेने, देखने, आदिके समय वाच्य और बहुभाग अवाच्य आकारों ( कल्पनाओं ) का स्वसंवेदन हो रहा है । इस कारण बौद्धोंका हेतु विरुद्ध ही है । " साध्यविपरीतव्याप्तो हेतुर्विरुद्धः "।
न च जात्यादिरूपत्वमर्थस्यासिद्धमंजसा । निर्बाधबोधविध्वस्तसमस्तारेकि तत्वतः ॥ १९ ॥
घट, पट, आदि पदार्थोका स्वरूप, जाति, विशेष, पर्याय, आदिके साथ तदात्मक हो रहा है, यह असिद्ध नहीं है निर्दोष है । क्योंकि बाधकरहित ज्ञानोंके द्वारा इस विषयकी संपूर्ण शंकाओंको विध्वस्त कर दिया गया है । अर्थात् सम्पूर्ण पदार्थ सामान्य विशेष आदि अनेक धर्म आत्मक हैं। इसमें कोई बाधक नहीं है । इस कारिकामें अनुमानके प्रतिज्ञा हेतु ये दो अवयव कण्ठोक्त हैं ।
जात्यादिरूपत्वे हि भावानां निर्बाधो बोधः समस्तमारेकितं हंतीति किं नश्चितया। निधित्वं पुनर्जात्यादिबोधस्यान्यत्र समर्थितं प्रतिपत्तव्यं ततो जात्याद्यात्मकस्वार्थव्यवसितिः कल्पना स्पष्टा प्रत्यक्षे व्यवतिष्ठते ।
सभी पदार्थोके जाति आदि, स्वरूप होनेमें समस्त देश, काल, और व्यक्तियोंकी अपेक्षासे हो सकनेवाली बाधाओंको टालता हुआ चमक रहा सम्यग्ज्ञान ही जब सम्पूर्ण शंकाओंको नष्ट कर देता है, तो ऐसी दशामें हमको चिन्ता करनेसे क्या ? अर्थात् हम निश्चिन्त हैं । जाति आदिसे तदात्मक हुये अर्थको जाननेवाला ज्ञान फिर बाधकोंसे रहित है। इसका हम अन्य प्रकरणोंमें समर्थन कर चुके हैं । वहांसे समझ लेना चाहिये । तिस कारण सिद्ध हुआ कि जाति आदिसे तदात्मक हो रहे स्व और अर्थका निर्णय करनारूप स्पष्ट कल्पना भला प्रत्यक्षज्ञानमें व्यवस्थित हो रही है ।
संकेतस्मरणोपाया दृष्टसंकल्पनात्मिका।। नैषा व्यवसितिः स्पष्टा ततो युक्ताक्षजन्मनि ॥२०॥
जो कल्पना संकेतग्रहण और उसका स्मरण करना आदि उपायोंसे उत्पन्न होती है, अथवा देखे हुये पदार्थमें अन्य सम्बन्धियोंका या इष्ट अनिष्टपनेका संकल्प करना रूप है, वह कल्पना श्रुतज्ञानमें सम्भवती है । प्रत्यक्षमें ऐसी कल्पना नहीं है । हां, स्वार्थनिर्णय करना रूप स्पष्ट कल्पना तो प्रत्यक्षमें है । तिस कारण इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षमें यह कल्पना करना समुचित है।