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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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म्भवपनेकी सिद्धि की जा चुकी है । इस देशमें रहनेवाले और आजकल समयके पुरुषोंके जिस प्रकार होते हुये प्रत्यक्ष आदि प्रमाण उस केवलज्ञानके बाधक हो सकनेवाले उपज रहे हैं, तैसे ही हो रहे वे अन्य देश अन्यकाल और विशिष्ट पुरुषोंके भी प्रत्यक्ष आदिक प्रमाण केवलज्ञानके बाधक हो सकते थे । किन्तु ये प्रत्यक्ष तो बाधक नहीं है तो वे प्रत्यक्ष भला कैसे बाधक होंगे ? ऐसी दशामें. उनसे बाधा होना कैसे सम्भवता है ? और भला संदेह भी कैसे हो सकता है ? यदि फिर देशान्तर या कालान्तरमें होनेवाले विजातीय पुरुषोंके प्रत्यक्ष अथवा अनुमान आदि प्रमाण अन्य प्रकारके हैं वे इस देश और इस कालके पुरुषोंकेसे नहीं हैं, अतः वे उस सर्वज्ञ प्रत्यक्षके बाधक स्वीकार कर लिये जाते हैं, यों अप्रसिद्ध पदार्थोकी कल्पना कर कहोगे तब तो हम जैन कहते हैं कि आपकी केवल ज्ञानमें ईर्षा क्या है ? केवलज्ञान करके ही केवलज्ञानकी बाधा होना संभव है। और वह उसका प्रत्युत साधक हो जाता है। भावार्थ-यदि देशान्तर कालान्तरके मनुष्योंमें विलक्षण प्रकारके प्रत्यक्ष, अनुमान, आदिको मानना स्वीकार करते हो युगपत् सर्वदर्शी केवलज्ञान ही क्यों न मान लिया जाय जो कि पूर्वमें साधा जा चुका है।
___ ततः प्रसिद्धात्सुनिर्णीतासंभवद्भाधकत्वात्स्वसंवेदनवन्महीयसां प्रत्यक्षमकलंकमस्तीति प्रतीयते प्रपंचतोऽन्यत्र तत्समर्थनात् ।
तिस कारण बाधकोंके असम्भवका भले प्रकार निणीत हो जाना प्रसिद्ध हुआ होनेसे अतिशय पूज्य पुरुषोंका प्रत्यक्ष अपने अपने स्वसंवेदनके समान सिद्ध है । और वह ज्ञानावरण कलंकसे रहित है, ऐसा प्रतीत हो रहा है । प्रपंचसे उस सर्वज्ञ प्रयक्षका अन्य ग्रन्थोंमें समर्थन किया गया है। अष्टसहस्रीमें या विद्यानंद महोदयमें इसका विस्तार है।
प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रांतमिति केचन । तेषामस्पष्टरूपा स्यात् प्रतीतिः कल्पनाथवा ॥८॥ खार्थव्यवसितिर्नान्या गतिरस्ति विचारतः।
अभिलापवती वित्तिस्तद्योग्या वापि सा यतः ॥९॥
कोई वादी बौद्ध प्रत्यक्षका लक्षण कल्पनाओंसे रहित और भ्रमभिन्न होना ऐसा मान रहे हैं । “ कल्पनापोढमभ्रांत प्रत्यक्षं" । आचार्य कहते हैं कि उन बौद्धोंके यहां कल्पनाका स्वरूप क्या है ? बताओ। क्या अस्पष्ट स्वरूप प्रतीति करना कल्पना है ? अथवा ज्ञान द्वारा अपना और अर्थका निश्चय करना कल्पना है ? या शद्वयोजनासे सहित होकर ज्ञप्ति होना कल्पना है ? वा शद्वसंसर्गयोग्य प्रतिभास होना भी वह कल्पना मानी गई है ! । विचार करनेसे अन्य कोई गति नहीं दीखती है, जिससे कि वह भी कल्पना हो जायगी।