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तलाकोकवातिक
अनन्याभवन तथा अभावकी सामग्री आधार ' वस्तुग्रहण' मनइन्द्रिय, प्रतियोगिस्मरण, आदि हैं। उनकी अपेक्षा तो स्मरण आदि ज्ञानोंमें नहीं है । स्मरण आदिको उपमान या अर्थापत्तिरूप माननेपर अनवस्था दोषका भी प्रसंग होता है। अर्थात्-उपमान प्रमाणके उत्थानमें भी तो वृद्धवाक्यस्मरण आदिकी अपेक्षा होगी। उस स्मरणको भी पुनः उपमानरूप स्मरणको आवश्यकता होगी, कहीं ठहरना नहीं हो सकेगा । अर्थापत्तिमें भी व्याप्तिस्मरण या तर्ककी आकांक्षा है । और वे स्मरण या तर्क पुनः अर्थापत्तिरूप होंगे। उनके उठानेमें भी तर्ककी और व्याप्तिस्मरणकी आवश्यकता पडेगी और वे तर्क भी तुम्हारे विचार अनुसार अर्थापत्तिमें ही गर्भित किये जायेंगे, यह अनवस्था हुयी। स्मरण आदिको अभाव प्रमाणरूप माननेपर तो भाव अंशमें प्रवर्तकपनेका विरोध आता है। क्योंकि मीमांसकोंके यहां असत् अंशको जाननेके कारण अभाव प्रमाणको निवृत्ति करनेवाला माना हैं। प्रत्यक्ष आदि पांच प्रमाणोंको उन्होंने प्रवर्तक माना है। प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते । वस्तुसत्तावबोधार्थ तत्राभावप्रमाणता ॥ किन्तु स्मृति आदिसे भाव अंशोंमें प्रवृत्ति हो रही देखी जाती है। ____सादृश्यस्मृत्यादयो हि यद्युपमानरूपास्तदा तदुत्थापकसादृश्यादिस्मृत्यादिभिर्भवितव्यं अन्यथा तस्य तदुत्यापनसामर्थ्यासंभवात् स्मृत्यायगोचरस्यापि तदुत्यापनसामर्थ्यतिप्रसंगात् । प्रत्यक्षगोचरचारि सादृश्यमुपमानस्योत्थापकमिति चेत्र, तस्य दृष्टदृश्यमानगोगवयव्यक्तिगतस्य प्रत्यक्षागोचरत्वात् । गोसदृशो गवय इत्यतिदेशवाक्याहितसंस्कारो हि गवयं पश्यन् प्रत्येति गोसदृशोऽयं गवय इति । तत्र गोदर्शनकाले यदि गवयेन सादृश्यं दृष्टं श्रुतं गवयदर्शनसमये स्मर्यते प्रत्यभिज्ञायते च गवयमत्ययनिमित्तः सोयं गवयशद्ववाच्य इति संज्ञासंज्ञिसंबंधपतिपत्तिनिमित्तं वा तदा सिद्धमेव स्मृत्यादि विषयत्वमुपमानजननस्य सादृश्यस्येति कुतः प्रत्यक्षगोचरत्वं ? यतस्तत्सादृश्यस्मृत्यादेपमानत्वे अनवस्था न स्यात् ।
__ अभी दी गयी अनवस्थाको प्रन्थकार कंठोक्त पुष्ट करते हैं कि गौ और रोझके सदृशपन की स्मृति और प्रत्यभिज्ञान, तर्क, आदिकोंको यदि नैयायिक उपमानस्वरूप मानेंगे तब तो उस उपमानके उत्पन्न करनेवाले सादृश्य आदिको जाननेके लिये पुनः स्मृति, प्रत्यमिज्ञान आदिक होने चाहिये । अन्यथा यानी ज्ञात हुये विना उस सादृश्य आदिको उस उपमान प्रमाणके उत्थान करानेकी सामर्थ्यका असम्भव है । यदि स्मृति आदिकसे नहीं विषय किये सादृश्यकी भी उस उपमानके उत्थित करानेमें शक्ति मानी आयगी तो अतिप्रसंग दोष हो जायगा । यानी जिस मूर्खने गौ और गवयके सादृशपनको नहीं भी जाना है, उसके भी वनमें रोचको देखकर इस (गवय ) के सदृश गौ होती है, ऐसा उपमान प्रमाण उस सादृश्यके विधमान होने मात्रसे उत्पन्न हो जाना चाहिये । किन्तु होता नहीं है । यदि नैयायिक यों कहें कि उपमानप्रमाणका उत्थापक