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तत्वार्थचिन्तामणिः
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दूसरे नाम करके कह दिया, यह समझा जायगा । उसी मतिज्ञानका एक भेद तो लिंगकी अपेक्षा रखनेवाला अनुमान है । इस प्रकार एक सामान्य मतिज्ञानके व्यक्तिकी अपेक्षासे भेदको प्राप्त हुये दो प्रमाण प्रत्यक्ष और अनुमान स्वीकृत हुये कहने चाहिये । और तिसी प्रकार शद्वकी अपेक्षासे उत्पन्न हुआ श्रुतज्ञान क्यों नहीं उससे भिन्न तीसरा न्यारा प्रमाण सिद्ध होगा ? क्योंकि प्रत्यक्ष या अनुमानके समान सम्वादकपना श्रुतज्ञानमें भी एकसा है । कोई अन्तर नहीं है । इस प्रकार तीन प्रमाण प्रसिद्ध हो जाते हैं ।
यत्प्रत्यक्षपरामर्शिवचः प्रत्यक्षमेव तत् ।
लैंगिकं तत्परामर्श तत्प्रमाणांतरं न चेत् ॥
१७१ ॥
श्रुतज्ञानको प्रत्यक्ष और अनुमानसे भिन्न नहीं माननेवाला बौद्ध या वैशेषिक पंडित कहते हैं कि जो प्रत्यक्षका विचार करनेवाला वचन है, वह प्रत्यक्षरूप ही है । और जो अनुमानका परामर्श करनेवाला वचन है, वह अनुमानप्रमाणरूप ही है । अतः शवसे उत्पन्न हुआ तीसरा न्यारा प्रमाण नहीं है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार यदि कहोगे तो :
सर्वः प्रत्यक्षेणानुमानेन वा परिच्छिद्यार्थ स्वयमुपदिशेत् परस्मै नान्यथा तस्यानातत्वप्रसंगात् । तत्र प्रत्यक्षपरांमयुपदेशः प्रत्यक्षमेव यथा लैंगिकमिति न श्रुतं ततः प्रमाणांतरं येन प्रमाणद्वयनियमो न स्यादिति चेत् ।
बौद्ध कहते हैं कि सभी उपदेशक विद्वान् प्रत्यक्ष अथवा अनुमान करके स्वयं अर्थको जानकर दूसरोंके लिये उपदेश देवेंगे, अन्यथा यानी प्रत्यक्ष और अनुमानसे स्वयं नहीं जानकर तो स्वयं उपदेश नहीं दे सकते हैं। क्योंकि यों तो उन उपदेशकों को झूठा कहनेवाले अनाप्तपनेका प्रसंग होगा । तहां प्रत्यक्ष ज्ञानसे अर्थको जानकर परामर्श करनेवाला उपदेश प्रत्यक्ष ही है। जैसे कि अनुमान से अर्थको जानकर उपदेश देनेवालेका वचन अनुमानरूप है । इस कारण श्रुतज्ञान उन प्रत्यक्ष औरं अनुमानसे न्यारा प्रमाण नहीं है, जिससे कि हमारे प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो प्रमाणोंका नियम नहीं हो सके । ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार यदि कहोगे ? भावार्थ – “ तद्वचनमपि तद्धेतुत्वात् " प्रतिपादक के ज्ञान से उत्पन्न और प्रतिपाद्य के ज्ञानका जनक होनेके कारण जैसे परार्थानुमानके वचनको जैन अनुमानप्रमाण कह देते हैं, वैसे ही वचन या तज्जन्यज्ञान तो प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण हो सकता है । इसके लिये श्रुतको तीसरा प्रमाण माननेकी आवश्यकता नहीं । यों बौद्ध कहें:1
नाक्षलिंगविभिन्नायाः सामन्या वचनात्मनः ।
समुद्भूतस्य बोधस्य मानांतरतया स्थितेः ॥ १७२ ॥