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तत्त्वार्थ लोकवार्तिके
आदिका अन्तर्भाव हो नहीं सकता है। अतः इनको न्यारे प्रमाण मानो । यह आपको बलात्कारसे मानना पडा । सीधी अंगुलीसे घृत नहीं निकलता है ।
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यदि तर्कादेर्मानसेध्य क्षेतर्भावः स्याल्लिंगा नपेक्षत्वात्ततोऽध्यक्षानुमानयोः सिद्धिः प्रमाणांतराभाववादिनः संभाव्यते नान्यथा ।
यदि तर्क आदिको ज्ञापक हेतुकी नहीं अपेक्षा करनेसे मानसप्रत्यक्षमें गर्भित किया जायगा, तैसा होनेसे तो तीसरे आदि अन्य प्रमाणोंको नहीं माननेवाले बौद्ध या वैशेषिकों के यहां प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाणोंकी सिद्धि सम्भव सकती है। अन्यथा नहीं । अथवा इस पंक्तिका द्वितीय गौण अर्थ यह भी कर सकते हो कि तर्क आदिको प्रत्यक्षप्रमाणमें गर्भित करनेपर ही सभी जीवोंके सम्पूर्णप्रत्यक्षको प्रमाणपना और अनुमानोंको प्रमाणपना आता है । अन्यथा केवल अपना ही वर्तमानकालका प्रत्यक्ष और दृष्टान्तमें प्रत्यक्षसे जानी हुयी व्याप्ति करके उत्पन्न हुआ अनुमान ये तो प्रमाण हो सकेंगे। शेष बहुतसे प्रत्यक्ष और अनुमान अप्रमाण ठहर जायेंगे । अतः तर्क आदिकको मानो, विचार करनेपर प्रत्यक्षमें उनका अन्तर्भाव होता नहीं है । अतः परोक्षमें उनकी गिनती की जाय ।
तदा मतेः प्रमाणत्त्वं नामांतरधृतोस्तु नः । तद्वदेवाविसंवादाच्छ्रुतस्येति प्रमात्रयम् ॥ १७० ॥
तत्र तो स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, आदि या अवग्रह ईहाप्रभृति दूसरे नामोंको धारण करनेवाले मतिज्ञानका हम स्याद्वादियों के यहां प्रमाणपना व्यवस्थित हो रहा धन्यवादको प्राप्त होओ। हमारे और तुम्हारे माने हुये इस ज्ञानमें केवल न्यारे नामनिर्देशका भेद है, अर्थका भेद नहीं है । तथा तिस मतिज्ञानके समान श्रुतज्ञानको भी अविसम्बाद होनेके कारण प्रमाणपना हो जाओ। इस प्रकार प्रत्यक्ष, अनुमान, और श्रुतज्ञान 'ये तीन प्रमाण सिद्ध हो जाते हैं ।
यो ह्यवग्रहाद्यात्मकर्मिद्रियजं प्रत्यक्षमक्षैर्जनितत्वात् तदनपेक्षं तु स्मरणादि मानसं लिंगानपेक्षणादिति ब्रूयात् तेन मतिज्ञानमेवास्माकमिष्टं नामांतरेणोक्तं स्यात् । तद्विशेषस्तु लिंगापेक्षोनुमानमिति च प्रमाणद्वयं मतिज्ञानव्यक्त्यपेक्षयोपगतं भवेत् । तथा च शब्दापेक्षत्वात्कुतो ज्ञानं ततः प्रमाणांतरं न सिध्येत् संवादकत्वाविशेषादिति प्रमाणत्रय सिद्धेः ।
जो कोई वादी यों कहेगा कि इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेके कारण अवग्रह, ईहा, आदि स्वरूप ज्ञान इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष हैं, और इन्द्रियोंकी नहीं अपेक्षा रखनेवाले स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदिक तो मानस प्रत्यक्ष हैं, हेतुकी नहीं अपेक्षा होनेके कारण ये स्मरण आदिक अनुमानप्रमाण नहीं हो सकते हैं, इसपर आचार्य कहते हैं कि यों तो उस वादीने हमारा माना गया मतिज्ञान ही