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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
प्रत्यक्षं मानसं येषां संबंध लिंगलिंगिनोः । व्याप्त्या जानाति तेप्यर्थेतींद्रिये किमु कुर्वते ॥ १६३ ॥ यत्राक्षाणि प्रवर्तते मानसं तत्र वर्तते ।
नोन्यत्राक्षादि वैधुर्यप्रसंगात् सर्वदेहिनाम् ॥ १६४ ॥
जिन वादियोंके यहां मन इन्द्रियसे उत्पन्न हुआ प्रत्यक्षज्ञान साध्य और साधनके व्याप्ति करके हो रहे सम्बन्धको जान लेता है। वे भी वादी इन्द्रियोंके अगोचर अतीन्द्रिय विषयमें भला क्या उपाय करते हैं ? बताओ । जिस विषयमें बहिरंग इन्द्रियां प्रवर्त रही हैं । उस ही विषयमें अन्तरंग मन प्रवर्तता माना गया है। अन्य विषयोंमें नहीं प्रवर्तता है। यों तो सम्पूर्ण प्राणियोंके बहिरंग इन्द्रिय और मन आदिसे रहितपनेका प्रसंग होगा । भावार्थ-उन प्राणियोंके अतीन्द्रिय, इन्द्रिय, मन आदिको अल्पज्ञ जीव अपने इन्द्रियोंसे नहीं जान सकेगा। अतः अनुमान भी नहीं कर सकेगा। चालिनी न्यायसे किसी भी जीवकी इन्द्रियां नहीं सध सकेंगी। आगम, अर्थापत्ति, आदिको तुम प्रमाण नहीं मानते हो, अतः अतीन्द्रिय पदार्थोकी सिद्धि होना असम्भव है। किन्तु आत्मा, परमाणु, पुण्य, पाप, परलोक आदिकी सिद्धि, समीचीन व्याप्तिवाले हेतुओंसे हो रही है।
संबंधोतींद्रियार्थेषु निश्चीयेतानुमानतः । तयाप्तिश्चानुमानेनान्येन यावत्प्रवर्तते ॥ १६५ ॥ प्रत्यक्षनिश्चितव्याप्तिरनुमानेऽनवस्थितिः । निवर्त्यते तथान्योन्यसंश्रयश्चेति केचन ॥ १६६ ॥ तेषां तन्मानसं ज्ञानं स्पष्टं न प्रतिभासते ।
अस्पष्टं च कथं नाम प्रत्यक्षमनुमानवत् ॥ १६७ ॥ कोई कह रहे हैं कि अतीन्द्रिय अर्थोंमें अनुपानसे सम्बन्धका निश्चय कर लिया जाता है, और उस अनुमानकी व्याप्तिका भी निश्चय अन्य अनुमान करके कर लिया जाता है । यह धारा तबतक चलती रहेगी जबतक कि कहीं प्रत्यक्षसे व्याप्तिका निश्चय कर लिया जाय । इस कारण अनुमानमें अनवस्था और अन्योन्याश्रय दोष तिस.प्रकार निवृत्त हो जाते हैं । ऐसा जो कोई कह रहे हैं । उनके यहां वह प्रत्यक्षसे व्याप्तिको निश्चय करनेवाला अन्तिम मानसज्ञान स्पष्ट तो नहीं प्रतिभासता है । और अस्पष्टज्ञान भला प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है ? जैसे कि अविशद अनुमान प्रत्यक्ष नहीं कहा जाता है।