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तत्वार्थचिन्तामणिः
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सकल योगीको व्याप्तिजान लेनेपर भी क्या लाभ हुआ ! तथा जो अयोगी अल्प ज्ञानी जीव स्वयं व्याप्तिको नहीं जान रहे हैं, उन मनुष्योंके प्रति परार्थानुमान करानेमें भी उस योगिप्रत्यक्षका व्याप्तिको जाननेवाला व्यापार उपयोगी नहीं होता है । और सर्वज्ञ योगियों के प्रति तो स्वयं अपने प्रत्यक्षसे जानी हुयी व्याप्तिके ज्ञानका व्यापार करना व्यर्थ ही है । जैसे कि अपने स्वार्थानुमान करनेमें 1 निकटवर्त्ती साध्य और साधनकी प्रत्यक्षसे जानी हुयी व्याप्तिका ज्ञान व्यर्थ पडता है । योगियोंको सम्पूर्ण त्रिलोक त्रिकालवर्ती पदार्थोंमें अज्ञान, संशय, आदि विशेष समारोपों के होनेका तो अभाव है । अतः प्रत्यक्ष किये गये पदार्थों में भी किसी कारण से होगये समारोपको दूर करनेके लिये अनुमा ज्ञान सर्वज्ञ हो जाता, वह तो हो नहीं सकता है।
एतेनैव हता देशयोगिप्रत्यचतो गतिः । संबंधस्यास्फुटं दृष्टेत्यनुमानं निरर्थकम् ॥ १६० ॥ तस्याविशदरूपत्वे प्रत्यक्षत्वं विरुध्यते । प्रमाणांतरतायां तु द्वे प्रमाणे न तिष्ठतः ॥ १६९ ॥
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इस उक्त कथन करके ही योगियोंके देशप्रत्यक्षसे व्याप्तिको जानलेनेके सिद्धान्तका व्याघात करदिया है । अर्थात् – एकदेश योगियोंके अवधि, मन:पर्यय आदिरूप प्रत्यक्षोंसे व्याप्तिरूप सम्बन्धी ज्ञाप्ति होना नहीं बनता है। क्योंकि उन देशयोगियोंको भी साध्य साधनके सम्बन्धका व्याप्तिज्ञान चारों ओरसे स्फुट प्रत्यक्षरूप देखा जारहा है । अतः उन प्रत्यक्षज्ञानियोंको अनुमानका करना व्यर्थ है । यदि व्याप्तिको जाननेवाले उस देश प्रत्यक्षको अविशदरूप मानोगे तो उसको प्रत्यक्षपना विरुद्ध पडेगा । यदि व्याप्तिको जाननेवाले प्रमाणको अन्य प्रमाण माना जावेगा, तो प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण हैं, यह व्यवस्थित नहीं होता है । तीसरा व्याप्तिज्ञान भी प्रमाणरूप मानना अनिवार्य होगया ।
न चाप्रमाणतो ज्ञानाद्युक्तो व्याप्तिविनिश्वयः ।
प्रत्यक्षादिप्रमेयस्याप्येवं निर्णीत संगतः ॥ १६२ ॥
वैशेषिके अनुसार अप्रमाणरूप व्याप्तिज्ञान मान लिया जाय । मिथ्याज्ञानके संशय, विपर्यय और तर्क तीन भेद किये गये हैं । इसपर आचार्य कहते हैं कि अप्रमाणज्ञानसे व्याप्तिका बढिया निश्चय करना युक्त नहीं हैं। इस प्रकार तो प्रत्यक्ष, अनुमान, आदि प्रमाणोंके प्रमेय तत्त्वोंका भी निर्णय होना संगत हो जायगा । फिर भला प्रत्यक्ष आदिको प्रमाणपना क्यों पुष्ट किया जाता है ? चोर या व्यभिचारी मनुष्य भी यदि उपदेशक बन जावें तो सदाचारी विद्वानोंकी आज्ञाका अनुसरण करना क्यों वैध होगा ! |