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तत्वार्थचिन्तामणिः
प्रसंग हो जावेगा। यानी चक्षु, उपनेत्र, ( चश्मा ) लेखनी, शब्द, सादृश्य आदि जड भी प्रमाण बन बैठेंगे । तिस कारण एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। सम्पूर्ण विषयोंकी व्यवस्था करनेवाला प्रमाण पदार्थ तो अगौण होना चाहिये । इस प्रकार कोई बृहस्पति मतके अनुगामी चार्वाक कह रहे हैं। अब आचार्य कहते हैं कि- . . .
तेषां तत् स्वतः सिद्धं प्रत्यक्षांतरतोपि वा। स्वस्य सर्वस्य चेत्येतद्भवेत् पर्यनुयोजनम् ॥ १४८ ॥
उन चार्वाकोंके यहां स्वयं अपने पूर्वापरकालभावी अनेक प्रत्यक्ष और अन्य संपूर्ण प्राणियोंके प्रत्यक्षप्रमाण क्या स्वतः ही सिद्ध हो रहे हैं ! अथवा क्या अन्य प्रत्यक्षोंसे भी वे सिद्ध किये जाते हैं ! बताओ । इस प्रकार यह कटाक्षसहित प्रश्न करना उनके ऊपर लागू होयगा ।
स्वस्याध्यक्षं सर्वस्य वा स्वतो वा सिध्येत् प्रत्यक्षातरादेति पर्यनुयोगोऽवश्यंभावी ।
प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण माननेवाले चार्वाकोंके ऊपर इस. प्रकारका प्रश्न अवश्य होवेगा कि अपना प्रयक्ष अथवा सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रत्यक्ष क्या स्वतः ही सिद्ध हो जावेंगे ! अथवा अन्य प्रत्यक्ष प्रमाणोंसे साधे जावेंगे ? भावार्थ-अपनी निज आत्मामें हुये भूत, भविष्यत् कालके प्रत्यक्ष भी तो प्रमाण है । तुम्हारे पास उनके प्रत्यक्ष करनेका क्या उपाय है ! और स्वयं उस वर्तमानकालके प्रत्यक्षको कैसे जाना जायगा ? तथा अन्य प्राणियोंके भूत भविष्यत् वर्तमानकालके असंख्य प्रत्यधोंको भी प्रमाणपन स्वरूपसे जानने के लिये तुम्हारे पास इस समय क्या साधन है ? बताओ।
वस्यैव चेत् खतः सिद्धं नष्टं गुर्वादिकीर्तनम् । तदध्यक्षप्रमाणत्वसिध्यभावात्कथंचन ॥ १४९ ॥ प्रत्यक्षांतरतो वास्य सिद्धौ स्यादनवस्थितिः। कचित्वतोऽन्यतो वेति स्याद्वादाश्रयणं परम् ॥ १५०॥ .
यदि अपने ही प्रत्यक्षोंकी अपने आपसे सिद्धि होना इष्ट करोगे तो गुरु, पिता, सम्राट, परोपकारी आदिका गुणगायन करना नष्ट हुआ जाता है । क्योंकि उन गुरु आदिके प्रत्यक्षोंको प्रमाणपनकी कैसे भी सिद्धि नहीं हो पाती है । अर्थात् -गुरुकी पूज्यता के कारण उनके प्रत्यक्ष प्रमाणोंको तुम अपने प्रत्यक्ष प्रमाणोंसे कैसे भी नहीं जान सकते हो अथका बहुत वर्ष प्रथम हो चुके गुरुओंका या उनके प्रत्यक्ष ज्ञानोंका तुमको प्रत्यक्ष तो हो नहीं सकता है। फिर स्तुति किसकी की जाय ! गुरू आदिके इस प्रत्यक्षकी यदि आप अन्य प्रत्यक्षोंसे सिद्धि होना मानोगे तो उन प्रत्यक्षोंकी सिद्धि भी अन्य प्रत्यक्षोंसे होगी और उनकी भी अन्योंसे होगी। इस प्रकार अनवस्था दोष होगा अज्ञात