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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
हो जाय, अर्थात्-अभ्याससे पाटव न्यारा है । इस प्रकार कहनेपर तो हम जैन कहेंगे कि ऐसे ढंगसे अविद्याका सर्वथा नाशकर सम्यग्ज्ञानको धारनेवाले जीवोंकी विषयोंमें प्रवृत्ति भले ही होजाय किन्तु जिन मनुष्योंकी अविद्यावासना नष्ट नहीं हुयी है, उन जीवोंकी किसी विषयमें अनुभवज्ञानसे प्रवृत्ति होना कैसे सिद्ध होगा ? बताओ। क्योंकि आपकी मानी हुयी इस पटुताके न होनेके कारण उनके उस अनुभवमें प्रमाणपना नहीं प्राप्त हो सकता है। यदि बौद्ध इस दोष का निवारण यों करें कि सम्पूर्णप्राणियोंकी अविद्यावासनाके नाश हुये विना भी क्षणिकत्व, स्वर्गप्रापणशक्ति, आदिका अनुभव हो जाता है, तब तो हम जैन कहेंगे कि एक अनुभवके स्वलक्षण विषयमें पाटव और क्षणिकत्व विषयमें अपाटव ये परस्पर विरुद्ध हो रहे धर्म भला वास्तविक क्यों नहीं हो जावेंगे ? अनेकान्त आजावेगा । फिर बौद्धोंका धर्म निरात्मकपना कहां रहा ? उन दोनों पाटव अपाटवों से किसी एकको भी वस्तुभूत नहीं माना जायगा तो एक अनुभवमें किसी विषयकी अपेक्षा प्रमाणपन और किसी दूसरे विषयकी अपेक्षा अप्रमाणपनकी सिद्धि न हो सकेगी। .
प्रकरणाप्रकरणयोरनुपपत्तिरनेनोक्ता । अर्थित्वानर्थित्वे पुनरर्थज्ञानात्पपाणात्मकादुत्तरकालभाविनी कथमर्थानुभवस्य प्रामाण्येतरहेतुतां प्रतिपद्यते स्वमतविरोधात् । ततः स्वार्थव्यवसायात्मकज्ञानाभिधायिनामेवाभ्यासे स्वतोऽनभ्यासे परतः प्रामाण्यसिद्धिः।
इस कथनसे यानी अभ्यास और पाटवका विवार करचुकनेसे प्रकरण और अप्रकरणकी उपपत्ति न हो सकना भी कह दिया गया समझ लेना। अर्थात्-क्षणिकपनके प्रकरण भी सदा प्राप्त हो रहे हैं । अतः एक अंशमें निश्चय पैदा करानेका प्रकरण और क्षणिकत्वके निश्चय करनेका अप्रकरण नहीं कह सकते हो तथा ज्ञेय विषयका अर्थीपन और क्षणिक विषयका अनभिलाषुकपन तो फिर प्रमाणरूप अर्थज्ञानसे उत्तरकालमें होनेवाले हैं । वे अर्थके अनुभवकी प्रमाणता और अप्रमाणताके हेतुपनको कैसे प्राप्त हो सकेंगे ? अर्थात्-अर्थज्ञानमें प्रमाणपना उत्पन्न हो जानेपर पीछेथे अर्थमें अभिलाषुकता या अनर्थिता हो सकेगी। अत: अन्योन्याश्रय दोष आता है। अर्थीपन या अनर्थीपनसे अर्थज्ञानमें प्रमाणता या अप्रमाणता होवे और ज्ञानमें प्रमाणता अप्रमाणताके हो जानेपर अभिलाषा हावें, अर्थात् -बौद्धोंको अपने मतसे विरोध होगा । उन्होंने प्रमाणपनकी व्यवस्थाका यह ढंग स्वीकार नहीं किया है । तिस कारण स्त्र और अर्थको निश्चय करना स्वरूपज्ञानको कहनेवाले स्याद्वादियोंके यहां ही अभ्यास दशामें ज्ञानकी प्रमाणता स्वतः जानने और अनभ्यास दशामें ज्ञानकी प्रमाणता परतः जाननेकी सिद्धि होती है। एकान्तवादी नैयायिक बौद्ध आदिके यहां अनेक दोष आते हैं।
स्वतः प्रमाणता यस्य तस्यैव परतः कथम् । तदैवैकत्र नैवातः स्याद्वादोस्ति विरोधतः ॥ १२८ ॥