________________
तलार्थचिन्तामणिः
१२३
और हम बौद्धोंसे पूछते हैं कि यह आपका माना हुआ अभ्यास भला क्या पदार्थ है ? विद्यार्थी कई बार बोल बोल करके घोषणा करते हैं । मल्ल व्यायामकर अभ्यास करते हैं। घोडाको अनेक शोभनगतियोंका अभ्यास कराया जाता है । इसी प्रकार प्रत्यक्षज्ञानका अभ्यास क्या पडेगा । बताओ ! यदि पुनः पुनः प्रत्यक्षरूप अनुभवकी उत्पत्ति हो जाना अभ्यास कहा जायगा, तब तो क्षणिकपन आदिमें उस निर्विकल्पकको प्रमाणपनेका प्रसंग होगा। क्योंकि संपूर्ण अर्थोमें तदात्मक हो रहे उस क्षणिकपनरूप विषयमें निर्विकल्पकज्ञान सदा होते रहते हैं। स्वलक्षणोंसे क्षणिकपन अभिन्न है । अतः क्षणिकत्वमें तो बहुत बढिया अभ्यास सिद्ध हो रहा है । भावार्थ-स्वलक्षणपदार्थ तो विकल्पोंसे रहित है, क्षणस्थायी है । अतः क्षणिकपनेका ज्ञान स्वलक्षणको जानते समय ही प्रत्यक्ष द्वारा हो चुका है । किन्तु कालान्तरस्थायीपनके समारोपको दूर करनेके लिये सत्त्व हेतुसे क्षणिकपनको पुनः साधा जाता है। अतः फिर फिर अनुभवोंकी उत्पत्तिको यदि अभ्यास माना जायगा तो क्षणिकपनमें परम अभ्यास होनेके कारण बडी सुलभतासे निश्चय हो जायगा और क्षणिकपनको जाननेमें प्रत्यक्षज्ञानको प्रमाणपना प्राप्त हो जावेगा, जो कि तुम बौद्धोंको इष्ट नहीं है। अतः यह पक्ष अच्छा नहीं है।
पुनः पुनर्विकल्पस्य भावः स इति चेत्, ततोनुभवस्य प्रमाणत्वे निश्चयजननादेव तदुपगतं स्यादिति पक्षांतरं पाटवमेतेनैव निरूपितं ।
___ यदि फिर फिर विकल्पज्ञानोंकी उत्पत्ति होना वह अभ्यास है, ऐसा कहोगे तब तो उस अभ्याससे अनुभव ( प्रत्यक्ष ) को प्रमाणपना लाया जावेगा, ऐसा होनेपर निश्चयकी उत्पत्तिसे ही वह प्रमाणपना स्वीकार किया गया समझा जायगा और ऐसा माननेपर अनवस्था और अन्योन्याश्रय दोष पहिले कहे जा चुके हैं । इस कथनसे ही अनुभवकी पटुताका दूसरा पक्ष भी निरूपण कर दिया गया समझ लेना चाहिये। अभ्यासपाटव, प्रकरण और अर्थापन इन चार पक्षोंमें दक्षताका भी ग्रहण करना इष्टसाधक न हो सका।
अविद्यावासनाप्रहाणादात्मलाभोनुभवस्य पाटवं न तु पौनःपुन्येनानुभवो विकपोत्पत्तिर्वा, यतोभ्यासेनैवास्य व्याख्येति चेत्, कथमेवमप्रहाणाविद्यावासनानां जनानामनुभवात्कचित्पवर्तनं सिध्येत्, तस्य पाटवाभावात् प्रमाणत्वायोगात् । प्राणिमात्रस्याविद्यावासनाप्रहाणादन्यत्र क्षणक्षयाउनुभवादिति दोषापाकरणे कयमेकस्यानुभवस्य पाटवापाटवे परस्परविरुद्ध वास्तवेन स्यातां । तयोरन्यतरस्याप्यवास्तवत्वे कचिदेव प्रमाणत्वा. प्रमाणत्वयोरेकत्रानुभवेनुपपत्तेः। ।
- बौद्ध कहते हैं कि अविद्यारूप लगी हुई चिरकालकी वासनाके भले प्रकार नाश हो जानेसे अनुभवका आत्मलाभ होना ही पटुता है । पुनः पुनः करके अनुभव उत्पन्न होना अथवा बहुत बार विकल्पज्ञानोंकी उत्पत्ति होना तो पटुता नहीं है, जिससे कि अभ्यास करके ही इस पटुत्वकी व्याख्या