________________
१२०
तत्वार्यलोकवातिक
प्रमाणपनको जाननेके लिये दूसरा ज्ञान नहीं उठाया जाता है । हां, नहीं परची हुई अनभ्यास दशामें तो दूसरे कारणोंसे ही प्रमाणपना जाना जाता है। जैसे कि अपरिचितस्थलमें शीतल वायु,कमलगन्ध आदिसे जलज्ञानमें प्रमाणपनका निर्णय होता है । दूसरी तीसरी कोटिपर अवश्य अभ्यासदशाका ज्ञापक मिल जाता है। इस प्रकार कोई विद्वान् निर्दोष सिद्धान्तको कह रहे हैं । किंतु वह किन्हीं विद्वानोंका कहना स्याद्वादियोंके ही सिद्धांत अनुसार माननेपर घटित होता है । क्योंकि स्याद्वादियोंने स्त्र और अर्थका निश्चय करनेवाला होनेसे प्रमाणपन व्यवस्थित किया है। तभी तो पहिले हीसे अपने न्यारे कारणोंसे अपने प्रमाणपन या अप्रमाणपनको लेता हुआ ज्ञान स्व और विषयको युगपत् जान रहा है । हां, जो नैयायिक या वैशेषिक सम्पूर्णज्ञानोंका अपना निश्चय करनेसे रहित अस्वसंवेदी कह रहे हैं, उनके यहां यह व्यवस्था नहीं बनती है । वहां अन्योन्याश्रय, अनवस्था, चक्रक दोष अवश्य हो जावेंगे । हम जैनोंके यहां चाहे कोई भी सम्यग्ज्ञान या मिथ्याज्ञान हो अपने प्रमाणपन या अप्रमाणपनसे सहित शरीरको अवश्य जानेगा । इतना विशेष है कि अनभ्यास दशामें जबतक प्रमाणपनका निर्णय नहीं हुआ है, तबतक अप्रमाणपनसे सहित सदृश अपनेको जानेगा अथवा अनभ्यास दशामें जबतक अप्रमाणपन नहीं जाना गया है । तबतक स्वयंको प्रामाण्यग्रस्त सारिखा जानता रहेगा । केवल सामान्यज्ञानको जाननेका अवसर नहीं है। क्योंकि विशेषोंसे रहित सामान्य विचारा अश्वविषाणके समान असत् है । अतः सम्पूर्ण ज्ञानोंको स्वशरीर का निश्चय करनेवाला मानना आवश्यक है।
कचिदत्रंताभ्यासात् स्वतः प्रमाणत्वस्य निश्चयानानवस्थादिदोषः।
कहीं अधिक परिचितस्थलमें अत्यन्त अभ्यास हो जानेसे प्रमाणपनका स्वतः निश्चय हो जाता है। अतः अनवस्था आदिक दोष नहीं आते हैं। आत्माश्रय दोष भी नहीं आता है। अन्यत्र आत्माश्रय दोष है । जैसे कि खोगये उपनेत्र ( चश्मा ) को ढूंढनेके लिये उसी अपने उपनेत्रकी आवश्यकता है। अंधेरेमें दिया ( लालटेन ) को खोजनेके लिये स्वयं दीपककी आकांक्षा हो जाती है। किन्तु ज्ञान ही संसारमें एक ऐसा पदार्थ हैं, जो कि स्व और अर्थको प्रकाशता रहता है। अतः यहां आत्माश्रय तो दोष नहीं गुण है । कहीं कहीं एक दूसरेके आश्रय कर दो लकडियोंको तिरछा खडाकर देनेपर अथवा नट और वांसके प्रकरणमें अन्योन्याश्रय हो जाता है । वह गुण है। बीज, अंकुर या संसारकी अनादिता अथवा नित्यपरिणामी द्रव्य आदिमें अनवस्था भी दोष नहीं माना गया है। किन्तु ज्ञापक पक्ष होनेके कारण मूलको क्षय करनेवाले अनवस्था और अन्योन्याश्रय यहां दोष ही हैं । कारकपक्षमें भले ही ये कचित् गुण हो जावें, जहां कि दोषोंके होते दुये भी कार्य हो रहे दीखते हों, अन्यत्र नहीं। अतः नैयायिकोंके यहां वे दोष लागू हो जाते हैं। स्याद्वादियोंके यहां वे गुणरूप हैं । एकान्तवादी श्लेष्म रोगवालोंको दुग्धपान दोष है। किन्तु अनेका