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( १ )
स्वविषय
इतने बडे प्रकाशनभार को अपने कंधेपर लेनेमें संस्थाने विशेष धैर्य दिखाया है, यह कहने में हमें संकोच नहीं होता है । प्रकाशन कार्यके लिए वर्तमानमें कितनी असुविधा है, सर्व साधन सामग्री मिलाने में कितना कष्ट होता है, सर्व पदार्थोंकी कितनी महता है यह सब जानते हैं ऐसी स्थिति में भी इतने बडे ग्रंथके प्रकाशनका साहस हमारी संस्थाने किया है।
इस महान ग्रंथके प्रत्येक खंडमें करीब ८ से ९ हजार रूपये तक संस्थाको खर्च करने पडते हैं । अर्थात् प्रत्येक पुस्तककी लागत कीमत ९) है । करीब ५०० प्रति हम हमारे सदस्योंको, त्यागी, विद्वान् एवं संस्थावोंको विनामूल्य भेट स्वरूप दे रहे हैं । अर्थात् पांचसौ प्रतियोंका मूल्य संस्था चला जाता है, एक पैसा भी वसूल नहीं होता है । बाकी रही हुई पांचसौ प्रतियोंकी पूर्ण विक्री हुई तो हमारी आधी रकम उठ सकती है । २५) शेकडा कमीशन पुस्तक विक्रेतावोंको, विज्ञापन वगैरेहका खर्च आदि करने के बाद हमें लागतमूल्य भी नहीं मिलता है । जिसमें पांचसौ प्रति हमारे माननीय चुने हुए सदस्योंको पहुंचने के बाद इमसे मूल्यसे मंगानेवाले तो कौन हैं, कुछ इन गिने स्वाध्यायप्रेमी मंगाते हैं। बाकी कुछ पत्र विना मूल्य भेजने के लिए जरूर आते रहते हैं । ऐसी हालत में बाकी बची हुई प्रतियां बिककर आधी रकम संस्थाके कोषमें जमा हो जाय, इसमें कितने समय लगेंगे, इसे पाठक स्वयं ही सोचें । अतः हम इस कार्य में संस्थाके हानि लाभकी कोई भी बातको न सोचकर शुद्ध साहित्यप्रचारकी दृष्टिसे ही इस कार्यको कर रहे हैं । इसमें कर्तव्यपालनकी ही दृष्टि है, और कुछ नहीं । ऐसी स्थिति में हमारे माननीय सदस्य एवं धर्म बंधुवोंसे कुछ निवेदन करना अपना परम कर्तव्य समझते हैं । यदि उन्होने इस निवेदनपर ध्यान नहीं दिया तो संस्थाको हानि उठानी पडेगी । संस्थाको आपत्ति से बचाने में वे हमारी सहायता निम्न मार्ग से करेंगे ऐसी आशा हम करें तो अनुचित नहीं होगा ।
(१) हमारे प्रेमी पाठक एवं माननीय सदस्य ग्रंथमाला के अधिकसे अधिक स्थायी सदस्य बढाने में सहायता करें। प्रत्येक सदस्य आगामी खंडके प्रकाशनसे पहिले दो सदस्य बना देने की प्रतिज्ञासे बद्ध हो जाय तो एक वर्ष के भीतर हजार स्थायी सदस्य बन सकते हैं । १०१) देनेवाले स्थायी सदस्योंको अभीतक के प्रकाशित ग्रंथोमेंसे उपलब्ध १५-२० ग्रंथों के अलावा तत्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार के पूरे सेट ८४) मूल्यके मिल जाते हैं । अर्थात् १०१) रूपये तो इस ग्रंथ के प्रकाशन से ही वसूल होते हैं। बाद के ग्रंथ तो विनामूल्य मिलते ही जायेंगे । ऐसी हालतमें हमारे समाज के धर्मबंधु इस लाभप्रद ही नहीं, ज्ञानसमृद्धिकी योजनासे लाभ उठाकर संस्थाके स्थैर्य में सहायता करेंगे ऐसी पूर्ण आशा है ।
(२) जो स्थायी सदस्य नहीं बन सकते हों वे इस तत्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार ग्रंथकी कुछ प्रतियों को लेकर समाजके विद्वान्, संस्थायें, जिनमंदिर, सार्वजनिक संस्थायें, जैनेतर जिज्ञासु विद्वान्,