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________________ ५२ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके आदि गुणोंको स्वीकार करना आचार्य महाराजको इष्ट नहीं है। इस सिध्दान्तको बहुत अच्छे लक्षणों करके श्रीविद्यानन्द आचार्यने पुष्ट किया है जिसका कि आनन्द ग्रन्थराजके अध्ययनसे प्राप्त होता है । सम्यग्दर्शनका स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे पूर्णतया अनुभव नहीं होपाता है। हां, उसके प्रशम आदि कार्योका अनुभव होता रहता है । सम्यग्दृष्टि जीवके प्रशम 'आदिकगुण अवश्य पाये जावेंगे, दोनोंमें समव्याप्ति है । पञ्चाध्यायीकारके अनुसार मानी गयी विषमव्याप्ति नहीं स्वीकार की गयी है। प्रशम आदिकोंके निर्णयका उपाय भी भले प्रकार बतला दिया है । सर्व ही सराग सम्यग्दर्शनोंका अनुमान हो ही जावे यह नियम नहीं है, वतिराग सम्यग्दर्शनका ज्ञान कर लेना तो अतीव दुस्साध्य है। प्रत्यक्षदर्शी उसको जानते हैं। श्रध्दान जड पदार्थोका गुण नहीं है। किन्तु ज्ञानके समान चेतनात्मक होनेसे आत्माका स्वभाव सम्यग्दर्शन है । आत्मद्रव्य नित्य है, किन्तु उसके सभी परिणाम उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यसे युक्त हैं । श्रध्दान, सुख, ज्ञान, चारित्र आदि ये सब आत्माके सहभावी और क्रमभावी अंश हैं । कालत्रयवर्ती नित्य गुणोंको सहभावी अंश (पर्याय ) कहते हैं और ऊर्ध्वाश कल्पनारूप स्वभावोंको क्रमभावी अंश ( पर्याय ) कहते हैं। ये दोनों पर्यायार्थिक नयके विषय हैं। अनन्तभवसन्तानध्वांतनिर्नाशने पटुः । सम्यग्दर्शनभास्वानः पुनीतात्प्रशमोत्करैः॥ अब सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके कारणोंको कहनेवाले सूत्रका अवतरण उठाते हैंन सम्यग्दर्शनं नित्यं नापि तन्नित्यहेतुकम् । नाहेतुकमिति प्राह द्विधा तजन्मकारणम् ॥ सम्यग्दर्शन नित्य नहीं है, क्योंकि संसारी जीवोंके किसी किसी विशेष कालमें उत्पन्न होता है । और उस सम्यग्दर्शनके उत्पन्न करानेवाले कारण भी नित्य नहीं हैं। क्योंकि कभी कभी होनेवाले काललब्धि, उपशम आदि कारणोंसे सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है तथा सभ्यग्दर्शन गुण अपने उत्पादक कारणोंसे रहित भी नहीं है। क्योंकि जो सत् हेतुओंसे रहित होता है, वह अनादिसे अनंततक रहनेवाला नित्य हो जाता है, किंतु संसारी जीवोंके विशेष समयमें सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता हुआ देखा जाता है । तिनमें प्रथमोपशम, द्वितीयोपशम और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन तो उत्पन्न होकर कुछ कालके पश्चात् नष्ट हो जाते हैं और क्षायिक सम्यक्त्व केवलज्ञानी या श्रुतकेवली मुनिके निकट उत्पन्न होकर अनंतकालतक ठहरता है । अतः सम्पग्दर्शन हेतुओंसे रहित नहीं है, किंतु हेतुमान् है। इस सिद्धांतको पुष्ट करनेके लिए ही सूत्रकार उमास्वामी महाराज उस सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके कारणोंको दो प्रकाररूपसे अग्रिम सूत्र द्वारा अच्छीतरह स्पष्ट कहते हैं-सुनिये ।
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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