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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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द्वितीय सूत्रका सारांश
इस द्वितीय सूत्रका संक्षेपसे विवरण यों है कि निरुक्तिसे सम्यग्दर्शनको अर्थ भले प्रकार देखना होता था, किन्तु वह इष्ट नहीं है । अतः सम्यग्दर्शनके स्वतन्त्र लक्षणको मूल सूत्रकारने कण्ठोक्त कहा, जिससे कि तत्त्वार्थीका श्रद्धान करना ही सम्यग्दर्शन होसकता है । यौगिकसे रूढि
और रूढिसे पारिभाषिक अर्थ बलवान् होता है। इस श्रद्धानके होते हुए ही भगवान् अर्हन्त देवका दर्शन करना भी मोक्ष-मार्गमें उपयोगी होजाता है। अन्यथा नहीं । सबके अर्थरूप और अनर्थरूपपने इन दो एकान्तोंका खण्डन करते हुए तथा काल्पत अर्थके श्रद्धानका वारण करते हुए अर्थ पदकी सार्थकता दिखलायी है । धन प्रयोजन, निवृत्ति आदिक रूप अर्थोके श्रद्धान करनेसे सम्यग्दर्शन नहीं होपाता है, वास्तवमें विचारा जावे तो धनरूप, पदार्थ है भी नहीं, गौ भैंस आदि भी धन हैं। किन्तु साधुका धन निम्रन्थता और तपस्या है । इष्ट अनिष्ट व्यवस्था कल्पित है। कल्पित व्यवहारोंसे माने गये वस्तुके सद्भूत अंश उसके एक देश हैं। किन्तु पूर्ण वस्तुरूप तत्त्वको जाननेपर जीव, पुद्गलका भेद-विज्ञान करनेवाला सम्यग्दृष्टि होता है अकेले अर्थ और अकेले तत्त्वका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन नहीं है । जिन वास्तविक स्वभावों करके पदार्थ व्यवस्थित होरहा है उन्हीं स्वभावों करके श्रद्धान किये जानेपर वह तत्त्वार्थ है । एकान्तवादियोंके द्वारा माना गया अर्थ मिथ्या है । सम्यक् पदके कहनेसे मूढश्रद्धान और संदिग्ध तथा विपरीत श्रद्धानोंका वारण करदिया है । श्रद्धान और ज्ञानमें विशेष अन्तर है। ये दोनों स्वतन्त्र गुण हैं । ज्ञान और चारित्रके मूललक्षण सूत्रोंकी आवश्यकता नहीं है, निरुक्ति, कारण, विधान, आदिसे ही उनका लक्षण टपक पडता है । इसके आगे श्रद्धानको विश्वासरूप इच्छा माननेवालोंका खण्डन किया है कि यों तो इच्छारहित निर्ग्रन्थ मुनियों और पूज्य अर्हन्तों तथा सिध्दोंके सम्यग्दर्शनके अभाव होजानेसे मोक्षका भी अभाव होजावेगा, यह प्रसङ्ग इष्ट नहीं है । श्रध्दानको आत्माका धर्म माननेपर अल्प, बहुत्व आदिकी व्यवस्था बन जाती है। सभ्यग्दर्शन आत्माका ही गुण है। जीव और कर्म इन दोनों द्रव्योंका एक गुण नहीं होसकता है तथा कर्मोके गुणसे कर्मोका नाश भी नहीं होसकता है। जो जिसका गुण होता है वह उसकी रक्षा ही करता है पराधीनताको नहीं।
.. सम्यग्दर्शनके सराग और वीतराग दो भेद हैं । सरागसम्यक्त्व चौथे गुणस्थानसे दसवें गुणस्थानतक और वीतराग सम्यक्त्व सिध्द अवस्थातक पाया जाता है। सराग सम्यवत्वका प्रश्.म आदि चार गुणोंसे अनुमान करलिया जाता है । प्रशम आदि चार गुण सम्यादृष्टियोंके ही हो सकते हैं । श्री पञ्चाध्यायोके अनुसार अभव्योंमें या भव्योंके भी पहिले, दूसरे, तीसरे गुणस्थानोंमें प्रशम