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________________ - तत्वार्थ लोकवातिके 1 1 है और आधार आधेयभावके खण्डनके लिये दिया गया हेतु असिद्ध है । थाली [ कुंडी ] में दही है । कपडेमें रूप है, वृक्षमें आम्रफल है, आत्मामें सुख है, इत्यादि प्रकार - बाधारहित प्रसिद्ध ज्ञान ही उस आधारआधेयभावके साधनेवाले हैं । इसपर कोई बौद्ध यों कहें कि ये थाली में दही है इत्यादि ज्ञान तो विशेष कार्यकारणभावके साधक हैं। यानीं पूर्वसमयकी रीती थाली दही आ जाने पर दधिसहित थालीकी उत्पादक है । घटज्ञानसे रहित आत्मा उत्तरक्षणमें घटज्ञानवाले आत्माका जनक हैं । आपको भी पर्यायदृष्टिसे आत्माका उत्पाद मानना अभीष्ट है । ऐसा कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि अच्छा, वही आधार आधेयभाव हो जाओ । अर्थात् स्याद्वादियोंके मत में कार्यकारणभावका व्याप्य आधारआधेयभाव बन जाओ ! कोई क्षति नहीं । जब कि सम्पूर्ण पदार्थों में अर्थक्रियायें होती रहती हैं, तो सान्तर अवस्थाको छोडकर निरन्तर अवस्थारूपसे उत्पन्न होना या कार्यप्रागभावकी दशाके पीछे कार्य सद्भावरूप पर्याय होना अथवा और कुछ समयोंतक सदृश अर्थक्रियायें होते रहना माना जाता है । कार्यकारणभाव व्यापक है और व्याप्य है । चक्षुका और ज्ञानका अथवा दण्ड और घटका कार्यकारणभाव है । किन्तु आधाराधेयभाव नहीं है । कचित् आत्मा और ज्ञान तथा आकाश और अवगाह कार्यका कार्यकारण होते हुए भी आधाराधेय भाव है । इसपर बौद्ध यदि यों कहें कि वह कार्यकारणभाव तो कल्पित परमार्थ नहीं, प्रन्थकार कहते हैं कि सो न कहना। क्योंकि हम वास्तविक कार्यकारणभावको अभी साध चुके हैं । इस कारण उस सामान्य और वस्तुभूत कार्यकारणभाव के विशेष आधार आधेयभाव का वस्तुभूतपना सिद्ध हो जाता है । 1 ५६८ कथं तर्हि गुणादीनां द्रव्याधारत्वे द्रव्यस्याप्यन्याधारत्वं न स्याद्यतोऽनवस्था निवार्येत । तेषां वा द्रव्यानाधारत्वप्रसक्तिरिति चेत् — बौद्ध कटाक्ष करते हैं कि गुण, क्रिया, आदिकोंका आधार यदि द्रव्य माना जायगा तो द्रव्यका भी अन्य आधार क्यों न होगा ? और उस द्रव्यका भी तीसरा द्रव्य आधार क्यों न होगा ? जिससे कि अनवस्थाका निवारण किया जा सके और यदि द्रव्यके आधारभूत अन्य द्रव्योंको न माना जायगा तो उन गुणोंका आधार भी सबसे प्रथम द्रव्य न माना जाय । यह प्रसंग होता है अर्थात् द्रव्योंके आधारोंकी कल्पना करते हुए अनवस्था होगी। और यदि तीसरी चौथी या सौवीं कोटिपर आधारान्तर न मानकर अनवस्था दोषको हटाया जायगा तो पहिलेसे ही गुणोंका आधार द्रव्य न मानना अच्छा है। बौद्धोंके इस प्रकार आक्षेप करनेपर श्रीविद्यानन्द आचार्य समाधान करते हैं कि नानवस्थाप्रसंगोत्र व्योम्नः स्वाश्रयतास्थितेः । सर्वलोकाश्रयस्यान्तविहीनस्य समंततः ॥ १९ ॥
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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