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तत्वार्थचिन्तामणिः
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जैन के प्रति बौद्ध प्रश्न करते हैं कि दो सम्बन्धियोके मध्य में रहनेवाला सम्बन्ध तिस प्रकार कैसे सिद्ध होता है ? बताओ ! इसपर आप नैयायिक, जैन, या अन्य कोई यों कहें कि एक संयोग नामक गुण पदार्थसे अथवा अन्य किसी बीच अन्तरालमें ठहरे हुए धर्मसे या नहीं कहने योग्य वस्तु स्वरूपसे दोनोंका सम्बन्ध होना बन जाता है । जैसे कि दो पत्रोंके बीचमें गोंद धर देनेसे वे चुपक जाते हैं, आदि । इस प्रकार कहनेपर तो हम सौगत जैनोंको फिर पूछेंगे कि वह मध्यमें पडा हुआ संयोग या धर्म अथवा अवाच्य वस्तुखरूप क्या उन दो सम्बन्धियोंसे भिन्न है ? या अभिन्न है ? यदि अभिन्न मानोगे, तब तो केवल दो सम्बन्धियों ही को माननेका प्रसंग होगा और तैसा होनेपर मध्यवर्ती कोई निराला संबन्ध न हो सका । यही तो हम मान रहे हैं । तथा द्वितीय पक्षके अनुसार वह सम्बन्ध उन दो सम्बन्धियोंसे यदि भिन्न माना जायगा तो उस सर्वथा न्यारे पडे हुए उदासीन सम्बन्ध के द्वारा केवल दो सम्बन्धी भला सम्बद्ध कैसे हो सकेंगे ? अलग गोंददानीमें पडा हुआ गोंद तो सन्दूक में रखे हुए पत्रोंको नहीं जोड सकता है । अथवा दूर देशमें पडा हुआ डोरा कपडे को नहीं सींव सकता है । यदि तिस भिन्नपन और अभिन्नपनसे न कहा जाय ऐसा कोई अवक्तव्य वह संबंध होगा तो वह वास्तविक कैसे हो सकेगा ? बताओ ! और वस्तु कैसा भी हो चाहे सम्बन्ध दोनों सम्बन्धियोंसे भिन्न हो अथवा अभिन्न हो, किन्तु वह दोनोंमें एक सम्बन्धसे कैसे रहेगा ? बताओ ! अर्थात् दो सम्बन्धियोंमें किसी अन्य सम्बन्धसे रहनेवाला सम्बन्ध हुआ करता है ।" तिष्ठतीति द्विष्ठः ” जैसे कि दण्ड और पुरुषमें रहनेवाला संयोगसम्बन्ध गुण होने के कारण जब दोनोंमें समवाय सम्बन्धसे तिष्ठता है, तब सम्बन्ध बनता है और संयोग तथा दण्डमें रहनेवाला समवाय भी स्वरूपसम्बन्धसे तिष्ठता हुआ सम्बन्ध बनता है । इसी प्रकार यहां भी दूसरे किसी एक सम्बन्धसे संबंध हो जानेके कारण दोनोंका एक वृत्तिमान् सम्बन्धके साथ सम्बन्ध होना यदि कहा जायगा तो उस सम्बन्धको भी सम्बन्धपना दोमें किसी अन्य संबंधसे ठहरानेपर होगा । अतः न्यारे तीसरे, चौथे, पांचवें, आदि एक सम्बन्धसे सम्बन्ध हो सकेगा। इस प्रकार अनवस्थादोष हो जाने से सम्बन्धज्ञान नहीं होने पाता है । बहुत दूर भी जाकर उन दो सम्बन्धियोंका एक सम्बन्धके बिना भी सम्बन्ध होना मान लोगे तो मूलमें पडे हुये केवल दो सम्बन्धियोंकी भी सम्बन्ध हुए विना सम्बन्धबुद्धि हो जाओ सम्पूर्ण पदार्थ अपने अपने स्वरूपमें स्थित हो रहे हैं । किसीका किसीसे सम्बन्ध ( ताल्लुक ) नहीं है । अन्यथा अतिप्रसंग हो जायगा । यानी चाहे जिसका चाहे जिसके साथ सम्बन्ध गढ जाओ ! यदि आप जैनोंके यहां सम्बन्ध पदार्थ अपने असाधारण स्वरूपसे स्थित हो रहा है। जैसा कि आपने पहिले साभिमान कहा था वह किसीकी अपेक्षा नहीं करता है, तब तो पदार्थोंका वास्तविकरूपसे नहीं मिलनारूप असम्बन्ध सिद्ध हो जाता है । क्योंकि सब अपने न्यारे स्वरूपमें स्थित होकर बैठे हुये हैं । सम्बन्ध भी अलग बैठा हुआ है । कोई भी किसीका सम्बन्धी नहीं है, सो ही हमारे यहां कहा है कि दोनोंका एक सम्बन्धसे