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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ५१७ णीय पदार्थोके न होनेपर सभी प्रकारसे संबन्ध होनेका असम्भव है । हम बौद्धोंका यहां यह विचार है कि परकी अपेक्षा करनेवाला पदार्थ स्वयं असन् होकर दूसरेकी अपेक्षा करता है ? अथवा स्वयं सन् होकर परापेक्षा करता है ? प्रथम पक्षके अनुसार खरविषाणके समान असद्भूत पदार्थ तो परकी अपेक्षा नहीं कर सकता है । क्योंकि अपेक्षा क्रिया रूप धर्मका आश्रय सद्भूत कर्ता होना चाहिये। (सन् देवदत्तो घटमपेक्षते ) । असत् पदार्थको खर,गके समान अपेक्षा धर्मके आश्रयपनका विरोध है । तथा दूसरे पक्षके अनुसार सद्भूत पदार्थ भी परकी अपेक्षा नहीं रखता है । क्योंकि वह पूर्णरूपसे बन चुका है । सत् पदार्थ तो सबकी आकांक्षाओंसे रहित है । कृतकृत्यके समान उसको किसीकी अपेक्षा नहीं, अन्यथा यानी सत्को भी परकी अपेक्षा होने लगे तो उसके सद्भुतपनमें विरोध आता है । अपूर्ण पदार्थ ही अपने शरीर को बनानेके लिये अन्यकी अपेक्षा रखता है परिपूर्ण नहीं । यदि जैन लोग कथंचित् सत् और कथंचित असत् पदार्थको अन्यकी अपेक्षा रखनेवाला मानें सो यह पक्ष भी बढिया नहीं है। क्योंकि दोनों पक्षमें हुये दोषोंका अतिक्रम नहीं हो सकेगा। प्रत्येक पक्षमें जो दोष होते हैं वे उभय पक्षमें भी लागू हो जाते हैं। दूसरी बात यह है कि एक पदार्थ किसी रूपसे सत् होय और किसी दूसरे स्वरूपसे असत् होय ऐसा नहीं सम्भवता है, क्योंकि विरोध है। अन्यथा वर्तमानकालका पदार्थ भी भूत चिरतरभूत भविष्यत् और दूर भविष्यत् आदि सम्पूर्ण · अर्थस्वरूप बन बैठेगा । इस प्रकार किसी भी पदार्थमें सत्पने और असत्पनेकी व्यवस्था न हो सकेगी। संकर और व्यतिकर दोष होनेका भी प्रसंग होगा। जिससे कि जैनोंके यहां दूसरोंकी अपेक्षा रखनेवाले पदार्थ का असत्को कारण मानकर होनेवाला संबंध सिद्ध हो जाता । अर्थात् परापेक्षारूप सम्बन्ध सिद्ध नहीं हो पाता है । वही हमारे ग्रंथोंमें कहा है कि परपदार्थोकी अपेक्षा ही सम्बन्ध हो सकता है । किन्तु वह अपेक्षक पदार्थ असद्भूत होकर कैसे दूसरोंकी अपेक्षा करता है ? मरगया पुरुष जलको नहीं चाहता है और पूर्ण अंगोंसे सदभूत भाव तो सम्पूर्ण अपेक्षाओंसे रहित है। वह भला दूसरेकी क्यों अपेक्षा करने चला ! इस प्रकार अपेक्षक कर्ता के समान अपेक्षणीय कर्ममें भी सत् और असत् पक्ष लगाकर उसकी अपेक्षा होना नहीं घटित होता है। यहांतक कोई बौद्ध कहरहा है । इस पर आचार्य महाराज कहते हैं कि सोऽपि सर्वथा सदसत्त्वाभ्यां भावस्य परापेक्षाया विरोधमप्रतिपद्यमानः कथं तां प्रतिषेध्यात् । प्रतिपद्यमानस्तु स्वयं प्रतिषेद्धुमसमर्थस्तस्याः कचित्सिद्धेरन्यथा विरोधायोगात् फयं चानिराकुर्वनपि परापेक्षा सर्वत्र सम्बन्धस्यानापेक्षिकत्वं प्रत्याचक्षीत ? न चेदुन्मत्तः । ____ वह बौद्ध भी सभी प्रकार सत्पने और असत्पनेसे पदार्थको परकी अपेक्षा करनेके विरोधको नहीं समझता हुआ कैसे उस परांपेक्षाका निषेध कर सकेगा ? और सत् असत्पने करके भावका
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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