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तत्त्वार्यलोकवार्तिक
है, वही धारणावश पीछे स्मरण कर सकता है । यद्यपि धारणा नामक अनुभवका नाश हो चुका है। फिर भी कालान्तरतक वासनायुक्त नित नये हो रहे उत्तरोत्तर ज्ञानपर्यायोंके तादृश परिणमनरूप संस्कारोंसे युक्त होरहा आत्मा नित्य है । अतः द्रव्यप्रत्यासत्तिके कारण जन्म जन्मान्तरमें भी उस आत्माके स्मृत्ति होना सम्भव है । बौद्ध कहते हैं कि नित्यद्रव्य आत्माको न माना जाय, फिर भी व्यवहारदृष्टिसे मान लिये गये सन्तानके एकपनेसे अनुभवके अनुसार स्मरण होना बन जायगा। आचार्य महाराज कहते हैं कि यह तो न कहना। क्योंकि वास्तविक पदार्थ तो कार्योको करते हैं । लकडीका बना हुआ या पत्रपर चित्र किया गया घोडा इच्छापूर्वक दौड नहीं सकता है। बीचमें पिरोये हुए डोराके विना दानोंकी माला टिक नहीं सकती है । जब कि आप बौद्धोंकी मानी गयी सन्तान वस्तुभूत नहीं है कल्पित है तो वह अनुभवके अनुसार नियत व्यक्तिमें ही स्मरण होनेका कारण नहीं घटित होती है। कल्पित सन्तानोंके बालक, कुमार, युवा, अवस्थाओंके एक अवस्थाताका भी निर्णय नहीं होने पाता है । यदि सन्तानको वास्तविक पदार्थ माना जायगा तब तो हमारे
और आपके माने गये शद्बों ही भेद है । अर्थमें भेद नहीं है। हम जिसको द्रव्य कहते हैं । उसको आप सन्तान कहते हैं । बस झगडा निवटा । तथा एक सन्तानके आश्रय रहकर आश्रयीपना कहो और चाहे एक द्रव्यरूप आधारका आधेयपना कहो, एकही बात है । कोई अन्तर नहीं है। किन्तु आत्मद्रव्यको न मानते हुए बौद्धोंका यह स्वीकार करना अच्छा नहीं है कि जिस सन्तानमें स्मरण करानेवाली वासनाएं जागृत होंगी। उसी सन्तानमें स्मरण उत्पन्न होगा, क्योंकि इस नियममें भी पहिले कहे हुएं दोषोंका उल्लंघन नहीं हो सकता है। भावार्थ-जब कि सन्तान कोई वस्तुभूत नहीं है तो जिस सन्तान या उस सन्तानका विवेक करना भी अशक्य है । हां! नाना सन्तानियोंकी लडीस्वरूप- सन्तानको आत्मद्रव्यपना बन जानेपर तो जिस आत्मद्रव्यका परिणाम होकर अनुभवके पश्चात् वासनाका जागरण हुआ है। उसी आत्मद्रव्यका परिणाम होकर स्मरण उत्पन्न हो जायगा । इस ढंगसे तो बौद्धोंके यहां दूसरे जैनोंके मतकी ही सिद्धि हो जाती है, जो कि होनी चाहिये ही।
.... कथं परस्परभिन्नस्वभावकालयोरेकमात्मद्रव्यं व्यापकमिति च न चोध, सकृन्नानाकारव्यापिना ज्ञानेनैकेन प्रतिविहितत्वात् । समसमयवर्तिनो रसरूपयोरेकगुणिव्याप्तयोरनुमानानुमेयव्यवहारयोरेकद्रव्यप्रत्यासत्तिरनेनोक्ता तदभावे तयोस्तव्यवहारयोग्यतानुपपत्तेः।
बौद्ध कटाक्ष करते हैं कि परस्परमें एक दूसरेसे भिन्न स्वभाववाले तथा भिन्न कालमें होनेवाले ऐसे अनुभव और स्मरणमें व्यापक होकर रहनेवाला भला एक आत्मद्रव्य कैसे माना जा सकता है ? दौडते हुए दो घोडोंके ऊपर या मझधारमें बहती हुयीं दो नावोंपर चलनेवाले मनुष्यकी जो दशा होगी, वही जैनोंके माने हुए आत्मद्रव्यकी दुर्व्यवस्था हो जायगी । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह चोध नहीं करना। क्योंकि बौद्ध चित्रज्ञानको मानते हैं । एक ही समय अनेक