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________________ तत्वाचिन्तामाणः उत्पत्ति होना भला क्यों देखा जा रहा है ? बताओ ! क्योंकि नियतदेश और कालमें उत्पन की परतन्त्रपनेके साथ व्याप्ति हो रही है । जो अपनी उत्पत्तिमें नियतदेश, कालोंकी अपेक्षा रखता है वह परतन्त्र है । प्रत्येक पर्वतमें माणिक्यरत्न प्राप्त नहीं होता है । प्रत्येक हाथीमें सदा गजमुक्ता नहीं पाये जाते हैं । अतः ये परतन्त्र हैं । जो अर्थ सभी प्रकारसे स्वतन्त्र है, वह सभी की नहीं अपेक्षा करके नियत देश, नियत काल, नियत द्रव्य और नियम भावका अवलम्ब लेकर उत्पन्न नहीं होता है । और जो पदार्थ उत्पन्न नहीं होता है, कूटस्थ, ब्यापक, नित्य, है। (या असत् है ) वह सभी प्रकार अर्थक्रिया करनेमें समर्थ नहीं है। क्योंकि स्वतंत्र पदार्थ किसीका कारण नहीं है, परिणामी पदार्थ कारण होता है । जो कि अन्तरंग और बहिरंग कारणोंसे हुए परिणामोंके साथ तदात्मक हो रहा है। यदि तुम बौद्ध किसी विशेषसम्बन्धसे देश, काल, आदिसे नियतपने करके पदार्थकी उस देश आदिमें नियमित हो रही उत्पत्ति मानोगे तो वह विशेष सम्बन्ध ही तो वास्तविक संबंध सिद्ध हो गया । इस बातको ग्रन्थकार और भी स्पष्टरूपसे कहते हैं। द्रव्यतः क्षेत्रतः कालभावाभ्यां कस्यचित्स्वतः। प्रत्यासन्नकृतः सिद्धः सम्बंधः केनचित्स्फुटः ॥ १२॥ किसी पदार्थका किसी इतर पदार्थके साथ द्रव्यसे क्षेत्रसे और कालभावोंसे निकटताको रखकर सम्बन्धित किया गया सम्बन्ध अपने आप ही स्पष्टरूपसे हो रहा है। स्पष्टरूपसे प्रतीत हो रहे पदार्थमें टण्टा खडा करना व्यर्थ है । द्रव्यप्रत्यासत्ति, क्षेत्रप्रत्यासत्ति, कालप्रत्यासत्ति और भावप्रत्यासत्ति ये चार सम्बन्ध व्यक्त हैं। . कस्यचित्पर्यायस्य स्वतः केनचित्पर्यायेण सहकत्र द्रव्ये समवायाद्रव्यमत्यासत्तिर्यथा स्मरणस्यानुभवेन सहात्मन्येकत्र समवायस्तमन्तरेण तत्रैव यथानुभवं स्मरणानुपपत्तेः सोममित्रानुभवाद्विष्णुमित्रस्मरणानुपपत्तिवत् । सन्तानैकत्वादुपपत्तिरिति चेन्न, सन्तानस्यावस्तुत्वेन तनियमहेतुत्वाघटनात् । वस्तुत्वे वा नाममात्र भिद्येत सन्तानो द्रव्यमिति । तथैकसन्तानाश्रयत्वमेकद्रव्याश्रयत्वं चेति न कश्चिद्विशेषः, यत्सन्तानो वासनामबोधस्तत्सन्तानं स्मरणमिति नियमोपगमोऽपि न श्रेयान्, प्रोक्तदोषानतिक्रमात् । सन्तानस्यात्मद्रव्यस्वोपपत्तौ यदानद्रव्यपरिणामो वासनाप्रबोधस्तदात्मद्रव्यविवर्तः स्मरणमिति परमतसिद्धेः। किसी एकपर्याय की अपने आपसे किसी दूसरी पर्यायके साथ एकद्रव्यमें समवायसम्बन्ध हो जानेके कारण द्रव्यप्रत्यासत्ति कही जाती है । जैसे कि स्मरणका पूर्वअनुभवके साथ एक आत्मामें समवाय हो रहा है। उस द्रव्यप्रत्यासत्तिरूप समवायसम्बन्धके विना उस ही आत्मामें अनुभवका अतिक्रमण नहीं कर स्मरण होना नहीं बन सकता है । जैसे कि सोममित्र व्यक्तिके अनुभव करनेसे विष्णुमित्र पुरुषको स्मरण होना नहीं बन सकता है। जो पहिले समयोमें अनुभव कर चुका
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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