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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ५२७ "" स्वरूपसे कहे जाते हैं, वास्तविकपने से वह स्वरूप नहीं है, यह उनका वचन अप्रमाणीक ही स्वीकार करना चाहिये । जिससे कि सूत्रकारका निर्देश आदि सूत्रमें निर्देशशद्वसे स्वरूपका कथन करना मिथ्या हो जाता । अर्थात् बौद्धोंका माना गया स्वरूपरहितपना या अवक्तव्यपना सिद्ध न हो सका । अतः निर्देश करना सच्चा सिद्ध हो गया । भले प्रकार निर्णीत हो रहा है, बाधा रहितपना जिनका ऐसे प्रत्यक्ष, अनुमान, और आगमप्रमाण जिस प्रकारसे अनेक धर्मस्वरूप वस्तुका प्रकाश कराते हैं, तिस प्रकारको आगेके भविष्य के ग्रन्थ में विस्तार के साथ कहेंगे। दूसरी बात यह है किनिःशेषधर्मनैरात्म्यं स्वरूपं वस्तुनो यदि । तदा न निःस्वरूपत्वमन्यथा धर्मयुक्तता ॥ ९ ॥ सम्पूर्ण धर्मोसे रहितपना यदि वस्तुका स्वरूप है, तब तो उसको स्वरूपरहितपना नहीं आया, धर्मो रहितपना ही उसका स्वरूप (धर्म) बन बैठा । अन्यथा यानी धर्म रहितपनेको वस्तुका स्वरूप न माना जायगा, तब तो धर्मरहितपनेका अभाव होनेपर सुलभतासे ही धर्मसहितपना सिद्ध हो जाता है, इस प्रकार दोनों ढंगसे हमारा सिद्धान्त ही पुष्ट होता है । बौद्धोंकी " इतो व्याघ्र इतस्तटी इधर वाघ है और दूसरी ओर नदी है की नीतिसे दोनों पक्षोंमें हार है और जैनों को " दोनों हाथ लड्डू " की नीतिसे प्रत्येक पक्षमें जय है । 99 तत्त्वं सकलधर्मरहितत्वमकल्पनारोपितं प्रत्यक्षतः स्फुटमवभासमानं वस्तुनः स्वरूपमेव, तेन तस्य न निःस्वरूपत्वमितीष्टसिद्धम् । कल्पनारोपितं तु तन्न वस्तुनः स्वरूपमाचक्ष्महे, न च कल्पितानिःशेषधर्मनैरात्म्यस्यात्मस्वरूपत्वे वस्तुनो निःशेषधर्मयुक्ततानिष्टा, कल्पितसकलधर्मयुक्तस्य तस्येष्टत्वात् । वस्तुभूताखिलधर्मसहितता तु न शक्यापादयितुं तया वस्तुनि कल्पितनिःशेषधर्मनैरात्म्यस्वरूपत्वस्याविनाभावाभावात् तामन्तरेणापि तस्योपपत्तेरिति केचित् । तेऽपि महामोहाभिभूतमनसः । स्वयं वस्तुभूतसकलधर्मात्मकतायाः स्वीकरणेऽपि तदसम्भवाभिधानात् । कल्पिताखिलधर्मरहितत्वं हि वस्तुनः स्वरूपं ब्रुवाणेन वस्तुभूतसकलधर्मसहितता स्वीकृतैव तस्य तन्नान्तरीयकत्वात् । बौद्ध अपने ऊपर आये हुए कटाक्षका निवारण करते हैं कि कल्पनाज्ञानसे नहीं आरोपा गया और निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से विशद प्रतिभास हो रहा तथा वास्तविक ऐसा सकल धर्मोसे रहितपना तो वस्तुका स्वरूप ही है । अर्थात् धर्मरहितपना ही तो वस्तुका शरीर [ डील ] है । तिस धर्मरहितपन स्वशरीरसे तो उस वस्तुका स्वरूपरहितपना नहीं हुआ । इस प्रकार हम बौद्धोंका इष्टसिद्धान्त सिद्ध हो जाता है। जो कल्पनासे आरोपा गया है, उसको तो वस्तुका स्वरूप हम नहीं कह रहे हैं । तथा कल्पनासे गढ लिये गये सम्पूर्ण धर्मोकी शून्यताको वस्तुका अपना स्वरूप माननेपर संपूर्ण धर्मोसे सहितपना हो जायगा । यह हमको अनिष्ट नहीं है । हम बौद्ध उस वस्तुको
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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