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तत्वार्यचिन्तामणिः
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नन्वेवमपरापरविशेषणकल्पनायामप्यनवस्था विशेषणान्तररहितस्य वा जीवादेः स्वाभिमतधर्मविशेषणैः प्रतिपत्तौ तैरपि रहितस्य प्रतिपत्तिरस्तु विशेषाभावादिति चेन्न विशेष्यात् कथञ्चिदभिन्नत्वाद्विशेषणानाम् । वस्तुतोऽनन्ता विधयोऽपि हि धर्मा निर्देशादिभिः संगृहीता विशेषणान्येव तद्व्यतिरिक्तस्य धर्मस्यासम्भवात् । तत्र जीवादिवस्तु विशेव्यमेव द्रव्यार्यादेशात् निर्देश्यत्वादि विशेषणमेव पर्यायार्थात् । प्रमाणादेशादपि विशेषण - विशेष्यात्मकं वस्तु जात्यन्तरमिति प्ररूपणायां नोक्तदोषावकाशः ।
अभीष्ट निर्देशत्व आदि धर्म करके भी रहित कोरे
इसपर किसीकीशंका है कि इस प्रकार तो करणपक्षके समान विशेषण पक्षमें भी अनवस्था लग जायगी । उत्तरोत्तरवर्ती विशेषणोंको भी अन्य न्यारे न्यारे विशेषणोंसे सहितपनेकी कल्पना बढती जायगी, अर्थात् दूसरे विशेषणोंकी तीसरे विशेषणोंसे सहित होकर ज्ञप्ति होगी । और तीसरे विशेषणकी चौथे विशेषणसहित होकर ज्ञप्ति होगी । यह अनवस्था है । यदि दूसरे, तीसरे, चौथे, आदि अन्य विशेषणोंसे रहित ही जीव आदिकोंकी अपने विशेषणों करके ही प्रतिपत्ति होना मानोगे तो उन अभीष्ट विशेषणों जीव आदिकोंकी प्रतिपत्ति हो जाओ ! कोई अन्तर नहीं है। यानी आगे चल कर विशेषणोंसे रहित जैसे अन्य विशेषणोंकी प्रतिपत्ति होना अनवस्थाको हटानेके लिये मानना पड़ता है । वैसे मूलमें ही विशेषणोंसे रहित ही जीव आदिकोंकी प्रतिपत्ति मान ली जाय । पहिले ही विशेषणोंका बोझ क्यों बढाया जाता है ? अथवा करणपक्षमें जैसे अनवस्था और चोद्य उठाये जाते हैं, वैसे विशेषणपक्ष में भी अनवस्था और चोद्य उठाये जा सकते हैं । निर्देश आदिको करण मानने और विशेषण मानने इन दोनों पक्षोंमें कोई अन्तर नहीं दीखता है । आचार्य कहते हैं कि यह शंका तो नहीं करना । क्योंकि विशेष्यसे विशेषणोंको कथञ्चित् अभिन्न माना है । वास्तविक रूप से विचारा जाय तो विधिस्वरूप अनन्तधर्म भी जो कि निर्देश आदिकों करके पकडे गये हैं, वे सब अवश्य विशेषण ही हैं । उन निर्देश आदिकोंसे न्यारे धर्मका वस्तुमें असम्भव है । अतः अभेद माननेपर अनवस्थादोष नहीं है । तहां जीव आदिक वस्तुयें द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षासे विशेष्य ही है और निर्देश करने योग्यपन, स्वामिपन आदि तो पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षा विशेषण ही हैं । द्रव्य और पर्यायोंके समुदायभूत वस्तुको जाननेवाले प्रमाणवाक्यकी अपेक्षासे भी विचारा जाय तो विशेष्य विशेषणस्वरूप वस्तु है । जो कि भिन्न दोनों जातिओंसे तीसरी जातिवाला है । इस प्रकार सिद्धान्त कथन करनेपर पूर्व में कहे हुए दोषोंको स्थान नहीं मिलता है ।
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नन्वेवं निर्देशादिधर्माणां करणत्वपक्षेऽपि न परापरधर्मकरणत्व परिकल्पनादनवस्था तञ्चतिरेकेण परापरधर्माणामभावात्तेषां तु करणत्वं तैरधिगम्यमानस्यार्थस्य कर्मता नयादेशात्, प्रमाणादेशात्तु कर्मकरणात्मक जात्यन्तरं वस्तु प्ररूप्यते इति न किञ्चिदनवद्यम् । नैतत्साधीयः । करणत्वे निर्देशादीनां कर्मसाधनतानुपपत्तेः विशेषणत्वे तु तदुपपत्तेः ।