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तत्वार्थोकवार्तिके
करना घटित हो जाता है । इस प्रकार किन्ही आचार्योंका मत है, जो कि हमें भी अभीष्ट है । अतः खण्डनीय नहीं ।
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परे पुनः कर्मसाधनाधिगमपक्षे निर्देश्यत्वादीनां कर्मतया प्रतीतेः करणत्वमेवं नेच्छन्ति तेषां विशेषणत्वेन घटनात् । न हि यथाग्निरुष्णत्वेन विशिष्टोऽधिगमोपायैरधिगम्यत इति प्रतीतिरविरुद्धा तथा सर्वेऽर्था निर्देश्यादिभिर्भावैरधिगम्यन्त इति निर्णयोऽप्यविरुद्धो नावधार्यते । तथा सति परापरकरणपरिकल्पनायां मुख्यतो गुणतो वानवस्थाप्रसक्तिरपि निवारिता स्यात् । तदपरिकल्पनायां वा स्वाभिमतधर्माणामपि करणत्वं मा भूदित्यपि चोद्यमानमनवकाश्यं स्यात् ।
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दूसरे विद्वान् फिर यों कहते हैं कि कर्मसाधन व्युत्पत्तिसे साधे गये अधिगमका पक्ष लेनेपर निर्देश करने योग्यपन या स्वामित्वके योग्यपन आदिकोंकी कर्मरूपसे ही प्रतीति होती है। अतः निर्देश आदिकोंका करणपन ही वे नहीं चाहते हैं । उनके मतमें निर्देश आदिकोंको विशेषणपनेसे घटित किया जाता है । अर्थात् " निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति, विधान, इन विशेषणोंसे विशिष्ट अर्थका अधिगम होता है, यह सूत्रका अर्थ है । जैसे कि उष्णत्व नामके विशेणसे विशिष्ट हुयी अग्नि अधिगमके उपायों करके जानी जाती है। इस प्रकारकी प्रतीति अविरुद्ध है । तिसी प्रकार सम्पूर्ण निर्देश आदिक अर्थ अपने निर्देश्यत्व आदि परिणामरूप विशेषणों करके विशिष्ट होते हुए जाने जा रहे हैं । इस प्रकारका निर्णयका भी अविरुद्ध नहीं निर्णीत किया जाय, यह न समझना । किन्तु यह निर्णय भी अविरुद्ध है । तैसा होनेपर एक दूसरा लाभ यह भी हो जाता है कि अनवस्था नहीं होने पाती है । यदि निर्देश आदिकोंको करण माना जायगा तो उन स्वभावभूत निर्देश आदिकोंको भी पुनः दूसरे करणोंकी आकांक्षा होगी, जैसे कि अर्थोके जाननेमें निर्देश आदि करणोंकी आवश्यकता पडी थी और उन दूसरे तीसरे करणोंके भी अन्य चौथे पांचमें आदि करणोंकी आकांक्षा होना बढता जायगा । इस प्रकार मुख्यरूप या गौणरूपसे उत्तरोत्तर करणोंकी परिकल्पना करते हुए अनवस्था हो जायगी। यदि आगे आगेवाले करणोंकी कल्पना नहीं करोगे तो अनवस्थाका तो वारण हो जायगा, किन्तु मूलमें अपने माने गये धर्मोको भीकरणपना मत होओ ! यानी जीव आदिकोंका अधिगम भी निर्देश आदिको करण माने विना ही हो जाओ ! इस प्रकार प्रेरणा कर उठाया गया प्रश्न भी अवकाश नहीं पायेगा | भावार्थ — निर्देशादिको विशेषण माननेपर तो अनवस्थाका वारण हो जाता है और उक्त प्रश्न उठाने का भी अवकाश नहीं रहता । अतः कर्मस्थ अधिगमके पक्षमें निर्देश आदिकोंको करण नहीं मानकर विशेषण मानना चाहिये । यह परविद्वानोंका मतप्रकृष्ट है । इष्ट होनेके कारण आचार्य महाराजने इसका खण्डन नहीं किया ।