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तवार्थचिन्तामानः
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दूसरे प्रकारका अभिप्राय उनके कैसे हुआ ? बताओ ! इसपर कोई यह समाधान देवे कि तिस प्रकारसे विवाद था। अतः सूत्रसे भिन्न सरीखा अभिप्राय पूछनका हुआ, यानी सूत्रोक्त क्रमका व्यत्यय कर पूंछनेका अभिप्राय प्रगट किया। तब तो हम भी कहते हैं। कि तिस ही कारण यह सूत्रमें कहे हुए क्रमके अनुसार अभिप्राय भी ऐसा ही हो । न्यायमार्ग सर्वत्र समान है। अपने अपने विचारोंके अनुसार अभिप्रायके बैंचनेसे न्यायकी हत्या हो जाती है। लोकमें भी यही ढंग प्रसिद्ध हो रहा है कि किसी भूषण, घटीयन्त्र, रत्न, पुस्तक आदिका पहिले निर्देश किया जाय, उनका स्वामी बतला दिया जाय । पीछे उनके कारणोंका निरूपण किया जाय । पश्चात् उनके स्थानका निरूपण कर उनके ठहरनेका काल और भेद गणना कर देनेसे जितना शीघ्र और दृढतम ज्ञान उनका हो जाता है, इन छहोंका आगे पीछे प्रश्नकर व्युत्क्रम कर देनेसे उतनी दृढप्रतिपत्ति नहीं हो पाती है। प्रत्येक प्राणियोंकी स्वानुभवगम्य प्रतीति होना ही इसका साक्षी है । अतः संक्षेप और विस्तारसे मध्यवर्ती मार्गका अवलम्बन करनेवाले शिष्योंके प्रति निर्देश आदिके कण्ठोक्त क्रमसे ही सूत्र कहना आवश्यक है । परोपकार करनेमें खतन्त्र होकर प्रवर्तनेवाले आचार्योके वचन किसीके पर्यनुयोग करके योग्य नहीं होते हैं।
किं पुनर्निर्देशादय इत्याह:
फिर शिष्यकी जिज्ञासा है कि वे निर्देश आदिक छह क्या हैं ! ऐसा प्रश्न होनेपर विद्यानन्द आचार्य स्पष्ट उत्तर कहते हैं।
यत्किमित्यनुयोगेर्थखरूपप्रतिपादनम् । कार्त्यतो देशतो वापि स निर्देशो विदां मतः॥२॥ कस्य चेत्यनुयोगे सत्याधिपत्यनिवेदनम् । खामित्वं साधनं केनेत्यनुयोगे तथा वचः ॥३॥ केति पर्यनुयोगे तु वचोऽधिकरणं विदुः। कियच्चिरमिति प्रश्ने प्रत्युत्तरवचः स्थितिः ॥ ४॥ कतिधेदमिति प्रश्ने वचनं तत्त्ववेदिनाम् । विधानं कीर्तितं शद्धं तत्त्वज्ञानं च गम्यताम् ।। ५॥
(१) जो कुछ है सो क्या है ? इस प्रकार प्रश्न होनेपर पूर्णरूपसे अथवा एकदेशसे मी जो अर्थस्वरूपका प्रतिपादन करना है, वह निर्देश है । ऐसा सभी विद्वानोंका मत है ।