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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
होता है, और कथञ्चित् अभिन्न भी होता है । तिस ही कारणसे फल और उस फलवाले करणी अभेद विवक्षा करनेपर आस्तिक्य गुण ही तत्त्वार्थश्रद्धान कह दिया जाता है। भावार्थ-कहीं आस्थिक्य गुणको ही सम्यग्दर्शनपनेका व्यवहार कर दिया जाता है । इस प्रकार उस आस्तिक्यके समान उस श्रद्धानकी. भी स्वसंवेदनप्रत्यक्षसे सिद्धी हो जाती है । आस्तिक्यका प्रत्यक्ष अधिक विशद है । अतः उस संवेद्य होरहे आस्तिक्यसे श्रद्धानका अनुमान द्वारा जानागयापन भी विरुद्ध नहीं पडता है । जैसे कुछ कुछ प्रत्यक्ष होते हुए भी हिताहितमें प्रवृत्तिनिवृत्ति क्रियारूप सदाचार से सज्जनताका और भी दृढरूपसे अनुमान कर लिया जाता है । - मतान्तरापेक्षया च स्वसंविदितेऽपि तत्वार्थश्रद्धाने विप्रतिपत्तिसद्भावात्तनिराकरणाय तत्र प्रशमादिलिंगादनुमाने दोषाभावः । सम्यग्ज्ञानमेव हि सम्यग्दर्शनमिति केचिद्विप्रवदन्ते, तान् प्रति ज्ञानात भेदेन दर्शनं प्रशमादिभिः कार्यविशेषैः प्रकाश्यते ।
दूसरी बात यों है कि इस वार्तिकमें सम्यग्दर्शनका प्रशम आदिकसे अनुमान किया गया है। उसका प्रयोजन यह है कि स्वयंको तो श्रद्धानका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष हो जाता है । पञ्चाध्यायीकारने श्रद्धानका स्वसंवेदनप्रत्यक्ष हो जाना माना है। किंतु फिर भी अन्यमतोंकी अपेक्षा करके तत्त्वार्थश्रद्धानमें अनेक प्रकारके विवाद होना पाया जाता है। उन विवादोंकी निवृत्ति के लिए उस सरागसभ्यग्दृष्टिमें प्रशम आदिक हेतुओंसे श्रद्धानका अनुमान करा दिया जाता है, ऐसा माननेपर शंकाकारकी
ओरसे उठाया गया कोई दोष नहीं आता है । कोई इस प्रकार विवाद करते हैं कि सम्यग्ज्ञान गुण ही निश्चयसे सम्यग्दर्शन गुण है । श्रद्धान करना ज्ञानरूप ही पडता है, सम्यग्ज्ञानसे अतिरिक्त सम्यग्दर्शन कोई स्वतंत्रगुण नहीं है । उन विवादियोंके प्रति ज्ञान गुणसे भिन्नता करके सम्यग्दर्शनको प्रशम आदिक विशेषफलोंसे प्रकाशित करा दिया जाता है । अर्थात् अतीन्द्रिय माने गये रूप, चेतना, दहनशक्ति, आदि गुणोंका जैसे नीला, पीला, घटज्ञान, पटदर्शन, ईंधन दाह आदि फलस्वरूप क्रियाओंसे अनुमान कर लिया जाता है अथवा सन्मुख ही खडे हुए पेडमें बेल, झाडीके विवादको दूर करनेके लिए शिंशपापन स्वभाव हेतुसे वृक्षपनका अनुमान करा दिया जाता है, वैसे ही पशम आदि फलोंसे स्वतंत्र सम्यग्दर्शन गुणका अनुमान कर लिया जाता है । सम्यग्दृष्टि जीवके विशिष्ट प्रशम आदि कार्य अवश्य होते हैं। . ज्ञानकार्यत्वात्तेषां न तत्प्रकाशकत्वमिति चेन्न, अज्ञाननिवृत्तिफलत्वात् ज्ञानस्य । साक्षादज्ञाननिवृत्तिानस्य फलं, परम्परया प्रशमादयो हानादिबुद्धिवदिति चेत्, तर्हि हानादि बुद्धिवदेव ज्ञानादुत्तरकालं प्रशमादयोऽनुभूयेरन् , न चैवं ज्ञानसमकालं प्रशमाद्यनुभवनात् । । यदि कोई यों कहे कि वे प्रशम आदि क्रियाविशेष तो सम्यग्ज्ञानके कार्य हैं । अतः वे सम्यग्ज्ञानके ही ज्ञापक होंगे, उस सम्यग्दर्शनका प्रकाशन नहीं कर सकेंगे, सो यह कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि ज्ञानका अव्यवहित फल अज्ञानकी निवृत्ति करना है, प्रशम आदि नहीं । एक गुणके