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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
ननु प्रशमादयो यदि स्वस्मिन् स्वसंवेद्याः श्रद्धानमपि तच्चार्थानां किन्न स्वसंवेद्यम् ? यतस्तेभ्योऽनुमीयते । स्वसंवेद्यत्वाविशेषेऽपि तैस्तदनुमीयते न :पुनस्ते तस्मादिति को श्रद्दधीतान्यत्रापरीक्षकादिति चेत, नैतत्सारं, दर्शनमोहोपशमादिविशिष्टात्मस्वरूपस्य तत्त्वाथेश्रद्धानस्य स्वसंवेद्यत्वानिश्चयात् । स्वसंवेद्यं पुनरास्तिक्यं तदभिव्यञ्जकं प्रशमसंवेगानुकम्पावत् कथंचित्ततो भिन्नं तत्फलत्वात् । तत एव फलनद्वतोरभेदविवक्षायामास्तिक्यमेव तत्त्वार्थश्रद्धानमिति, तस्य तद्वत्प्रत्यक्षसिद्धत्वात्तदनुमेयत्वमपि न विरुध्यते ।
यहां शंका है कि प्रशम आदि चारों गुण अपनी आत्मामें यदि स्वसंवेदनप्रत्यक्षसे जाने जाते हैं तो तत्त्वार्थीका श्रद्धान करना भी क्यों नहीं स्वसंवेदनप्रत्यक्षसे जान लिया जावे, जिससे कि आप जैन उन प्रशम आदिकोंसे उस श्रद्धानका अनुमान करते हैं अर्थात् श्रद्धान और प्रशम आदिक दोनों ही आत्माके परिणाम हैं । अतः सीधे ही स्वसंवेदनप्रत्यक्षसे सम्यग्दर्शनके स्वरूप होरहे श्रद्धानका ज्ञान हो जाना चाहिये । पहिले स्वसंवेदनसे प्रशम आदिकोंको जानें और पुनः प्रशम आदिक हेतुओंसे श्रद्धानका अनुमान करें । व्यर्थ ही यह परम्परापरिश्रम क्यों कराया जाता है। जब कि स्वसंवेदनप्रत्यक्षसे जानागयापन दोनोंमें विशेषताओंसे रहित होकर समान है । फिर भी उन प्रशम आदिकोंसे उस श्रद्धानका अनुमान किया जावे, किन्तु फिर उस श्रद्धानसे उन प्रशम आदिकोंका अनुमान न किया जावे इस पक्षपात रखनेवाली बातका परीक्षा नहीं करनेवाले अन्धश्रद्धानीके अतिरिक्त भला कौन विचारशील श्रद्धान कर सकेगा ? यानी कोई नहीं । ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार किसीका यह कहना तो साररहित है । क्योंकि द्रव्योंमें अनेक गुण (भाव) ऐसे होते हैं जिनका कि प्रत्यक्ष हो जाता है और अनेक भावोंका छद्मस्थोंको अनुमान ही होता है । शरीरमें नाडोका स्पार्शन प्रत्यक्ष हो जाता है और नाडीकी गतिसे अविनाभावी रोगोंका अनुमान कर लिया जाता है । घोडे, हाथी, आम, चावल, मनुष्य आदिके शुभ अशुभ लक्षणोंसे उनके गुणोंका अनुमान कर लेते हैं । इसी प्रकार दर्शनमोहनीयकर्मके उपशम, क्षय और क्षयोपशमसे उत्पन्न हुआ आत्माके विशिष्ट स्वरूप माने गये तत्त्वार्थश्रद्धानका स्वसंवेद वसे जानागयापन निश्चित नहीं होता है । क्योंकि तत्त्वार्थ-श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन वस्तुतः अत्यन्त सूक्ष्मगुण है । वह सामान्य मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका विषय नहीं है, ऐसी दशामे मतिज्ञानके भेदस्वरूप स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे वह नहीं जाना जा सकता है । भले ही स्वसंवेदनके द्वारा पुद्गलसे. भिन्न आत्माकी अनुभूति हो जावे, किन्तु सम्यग्दर्शनका स्वयं अपनेको प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है। हां ! फिर उस श्रध्दानसे अविनाभाव रखता हुआ और स्वसंदेनसे जान लिया गया ऐसा आस्तिक्यपरिणाम उस , श्रद्धानका प्रगट करनेवाला ज्ञापक हेतु होजाता है, जैसे कि प्रशम, संवेग, और अनुकम्पास्वरूप परिणाम उस श्रद्धानके ज्ञापक हेतु हो जाते हैं । ये प्रशम आदिक चारों ही स्वभाव उस श्रद्धानसे किसी अपेक्षा करके भिन्न हैं । क्योंकि वे चारों गुण उस श्रद्धानके फल हैं । करणसे फल कथञ्चित् भिन्न .