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________________ तत्वार्थ को वार्तिके परिणतियां होती रहती हैं । कहना तो यही है कि किस समयकी परिणति से सम्बन्धित वस्तुके स्पर्शको ठीक ठीक जान लिया है इसका निर्णायक उपाय हमारे पास नहीं । ५०० प्राण इन्द्रियजन्य ज्ञानमें भी यही टंटा लग रहा है । दूरसे, समीपसे, और अतिशय निकट से उसी गन्धका ज्ञान होनेमें जो विशेषतायें बिना बुलाये अंटसंट झलक रही हैं । वे अयथार्थ ज्ञानांश हो रहीं उस अवयवी ज्ञानकी प्रामाणिकतामें टोटा डाल देती हैं। एक गन्धद्रव्यमें नाना व्यक्तिओं को भिन्न २ प्रकारकी वासें आ रही हैं। श्लेष्म रोगीको तो गन्धज्ञानमें बहुत चूक हो जाती है । कोई कोई पुरुष तो हींगडा, कालानमक, लहसुन, मूरा आदिकी गन्धोंमें सुगन्ध या दुर्गन्धपका ही निर्णय अपने विचार अनुसार कर बैठे हैं । जो कि एक दूसरेसे विरुद्ध पडता है । तभी तो गोम्मटसारमें अनुकूलवेदन और प्रतिकूलवेदनका लक्ष्यकर सुगन्ध और दुर्गंधको पुण्य पाप, दोनों में गिनाया है। लेकिन सुगन्ध और दुर्गंधका निर्णय किसकी नाकसे कराओगे ! । 1 शके श्रावण प्रत्यक्षमें भी ऐसी पोलें चल रहीं हैं। दूर, निकटवर्ती, शब्दोंके सुननेमें अनेक अन्तर पड जाते हैं । बहिरङ्ग कारणों के समान अन्तरङ्ग क्षयोपशम, शल्य, संकल्पविकल्प, प्रसन्नता, दुःख, रोग, आदिकी अवस्थाओं में भी अनिवार्य अनेक प्रकार छोटे, बडे विसंवाद हो जाते हैं । श्रुतज्ञानमें भी अनेक स्थलोंपर पोलम्पोल मच रही है। किसी वस्तुका श्रुतज्ञान करते समय इको अनिष्ट और अनिष्टको इष्ट समझ लिया जाता है। जब सांव्यहारिक प्रत्यक्षका यह हाल है तो बिचारे परोक्ष श्रुतज्ञानोंमें तो और भी झंझटें पडेंगी । किसी मनुष्यने सहारनपुरमें यों कहा कि बम्बईमें दो पहलवानोंकी भित्ती ( कुश्ती ) हुई । एक मलने दूसरेको गिरा दिया । दर्शकोंमेंसे प्रधान धनिकने विजेता मल्लको एक हजार रुपये पारितोषक (इनाम) में दिये । यहां विचारिये कि श्रुतज्ञान करनेवाला श्रोता पुरुष यदि कहे हुये rain मात्र वाच्य अर्थका ही ज्ञान कर लेता तो उतना श्रुतज्ञान सर्वाङ्गीण ठीक मान लिया जाता । किन्तु सहारनपुर के सन्मुख बैठा हुआ श्रोता उसी समय अपनी कल्पनासे लम्बे, चौडे अखाडेको गढ लेता है । एक मलको काला दूसरेको गोरा मान लेता है। दर्शक लोग कुर्सी पर बैठे हुये हैं, कोट, पतलून, पगडी, अंगरखा आदि पहने हुये हैं । प्रधान पुरुष रत्नोंके अलंकारोंसे मण्डित हो रहा मध्यमें सिंहासनपर बैठा हुआ है । हजार रुपयोंमें सौ सौ रुपयोंके दश नोट थे। विजेता मल्ल प्रसन्नतावश इधर उधर उछलता फिरा होगा । इत्यादि बहुतसी ऊट पटांग बातों को भी साथ ही साथ उसी श्रुतज्ञानमें जानता रहता है, जो कि झूठी हैं । श्रोता भी विचारा क्या करे ? झूठी कल्पनाओंके बिना उसका काम ही नहीं चल सकता है । लडनेवाले मल्ल अमूर्त तो हैं नहीं । अतः उनकी काली, गोरी, मोंछवाली या बिना मोंछवाली मूर्त्तिको अपने मनमें गढ लेगा। आकाशमें तो कोई भित्ती होती नहीं है। अतः अखाडेकी भी कल्पना करेगा । विचारे देखनेवाले पुरुष कहां बैठे होंगे । अतः कुरसी, मूढा, दरी, चटाई आदिको भी अपने
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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