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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः १८५ स्वलक्षणव्यतिरिक्ता केयं निर्देश्यता साधारणता वा प्रतिभातीति चेत् तस्यासाधारणताऽनिर्देश्यता वा केति समः पर्यनुयोगः । स्वलक्षणत्वमेव सेति चेत् समः समाधिः, साधारणतानिर्देश्यतयोरपि तत्स्वरूपत्वात् । जैनोंके प्रति बौद्ध पूंछते हैं कि स्वलक्षणसे भिन्न होकर यह आपकी बतलायी हुयी निर्देश्यता ( वक्तव्यता ) अथवा साधारणता सामान्यपन ) भला क्या प्रतिभास रही है ? बताओ ! ऐसा प्रश्न करनेपर तो हम जैन भी पूंछेंगे कि आप बौद्धोंसे मानी गयी असाधारणता ( विशेष ) अथवा अनिर्देश्यता ( अवाच्यता ) भी उस स्वलक्षणसे न्यारी भला क्या दीखती है ? बताओ ! इस प्रकार सकटाक्ष चोद्य उठाना दोनोंके लिये समान ( एकसा ) है । इसपर आप बौद्ध यदि यों उत्तर दें कि असाधारणता और अनिर्देश्यता तो स्वलक्षण स्वरूप ही हैं, उससे न्यारी नहीं हैं, तब तो हमारी ओरसे भी यही समाधान समानरूपसे समझ लेना चाहिये कि साधारणता और निर्देश्यता भी उस वस्तुके स्वलक्षणस्वरूप ही हैं । स्वभाववान् के स्वभाव उसके स्वरूप ही होते हैं । तर्हि निर्देश्यं साधारणमिति स्वलक्षणमेव नामान्तरेणोक्तं स्यादिति चेत् तवाप्य साधारणमनिर्देश्यमिति किं न नामान्तरेण तदेवाभिमतम् । तथेष्टौ वस्तु न साधारणं नाप्य साधारणं न निर्देश्यं नाप्यनिर्देश्यमन्यथा चेत्यायातम् । ततोऽकिञ्चिद्रूपं जात्यन्तरं भवन्न दूरीकर्त्तव्यं गत्यन्तराभावात् । बौद्ध कहते हैं कि तब तो निर्देश्य और साधारण इस प्रकार के पर्यायवाची दूसरे शब्दों करके स्वलक्षण ही कहा गया कहना चाहिये । जैन आचार्य कहते हैं कि ऐसा कहने पर तो तुम बौद्धोंके यहां भी असाधारण और अनिर्देश्य इन दूसरे पर्यायवाची शब्दों करके वह स्वलक्षण ही कहा गया क्यों न मान लिया जावे ? अर्थात् स्वलक्षण भी शद्वके द्वारा आपके यहां कहा गया हुआ साधारण और निर्देश्य शद करके स्वलक्षण कथन किये जानेपर भी आप यों प्रसन्न हो सकते थे कि जब शब्द वस्तुको छूता ही नहीं है तो अनिर्देश्य और साधारण शद्वको बकने दो, स्वलक्षण तो कान मूंद करके बैठा हुआ है, किन्तु आपके अभीष्ट अनिर्देश्य और असाधारण शब्द तो यों ही बकवाद करके न चले जायेंगे । उन्हें तो वस्तुकी गोद में आपको बैठाना पडेगा। तभी आपके इष्टतत्त्वकी सिद्धि हो सकेगी और तिस प्रकार इष्ट करनेपर तो वस्तु न तो साधारण है । असाधारण भी नहीं है । कथन करने योग्य भी नहीं है और अवक्तव्य भी नहीं है । अन्य प्रकारके धर्मोसे भी नहीं है, यह सिद्धान्त आया । क्योंकि के द्वारा जो कहा गया वह आपके मतानुसार ठीक नहीं माना गया है । तिस कारण साधारण असाधारण या निर्देश्य अनिर्देश्य अथवा दूसरे प्रकार से वस्तुका कुछ भी स्वरूप न रहा, किन्तु आपने वस्तु मानी है । अतः तीसरी भिन्न जातिकी वस्तु कुछ भी स्वरूपोंको रखती हुयी दूर नहीं की जा सकेगी। आपके पास वस्तुके कुछ स्वरूपोंके
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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