________________
तत्त्वार्थचिन्तामाणः
४७५
कान्तानुषंगोऽपि नानिष्टः प्रमाणसाधनस्यैवानेकान्तत्वसिद्धेः नयसाधनस्यैकान्तव्यवस्थितेरनेकान्तोऽप्यनकान्त इति प्रतिज्ञानात् । तदुक्तं-"अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः। अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तार्पितानयात्" इति। न चैवमनवस्थानेकान्तस्यैकान्तापेक्षित्वे नैवानेकान्तत्वव्यवस्थितेः एकान्तस्याप्यनेकान्तापेक्षितयैवैकान्तव्यवस्थानात् । न चेत्यमन्योन्याश्रयणं, स्वरूपेणानेकान्तस्य वस्तुनः प्रसिद्धत्वेनैकान्तानपेक्षत्वादेकान्तस्याप्यनेकान्तानपेक्षत्वात् । तत एव तयोरविनाभावस्यान्योन्यापेक्षया प्रसिद्धेः कारकज्ञापकादिविशेषवत् । तदुक्तं-धर्मधर्म्यविनाभावः सिद्धयत्यन्योन्यवीक्षया । न स्वरूपं स्वतो ह्येतत्कारकज्ञापकांगवत्" इति।
___ तथा जिस रूपसे अस्तित्व है, उस स्वरूपसे अस्तित्व ही है । और जिस स्वभावसे नास्तित्व है, उससे नास्तित्व ही है । इस प्रकार एकान्तको स्वीकार करनेपर भी हमारे यहां कोई दोष नहीं है। क्योंकि श्रेष्ठ नयसे विवक्षित किये गये एकान्तकी समीचीनरूपसे सिद्धि हो चुकी है और प्रमाणसे विवक्षित किये गये अस्तित्वके अनेकान्तकी प्रसिद्धि हो रही है। जिस विवक्षित प्रमाण स्वरूपसे अनेकान्त है, उस स्वरूपसे अनेकान्त ही है। ऐसा एकान्त होनेका प्रसंग भी अनिष्ट नहीं है। क्योंकि प्रमाण करके साधे गये विषयको ही अनेकान्तपना सिद्ध है । और नयके द्वारा साधन किये गये विषयको एकान्तपना विवक्षित या व्यवस्थित हो रहा है। हम तो सबको अनेकान्त होनेकी प्रतिज्ञा करते हैं । इस कारण अनेकान्त भी अनेकधर्मवाला होकर अनेकान्त है। वही भगवान् श्री १०८ समन्तभद्र आचार्यने बृहत्स्वयम्भूस्तोत्रमें अठारहवें श्री १००८ अरनाथ जिनेन्द्रकी स्तुतिमें ऐसा कहा है कि अनेकान्त भी प्रमाण और नयोंसे साधन किया गया होकर अनेक धर्मस्वरूप है । हे जिनेन्द्र ! तुम्हारे मतमें प्रमाणसे अनेकान्त व्यवस्थित है और विवक्षित किये गये नयसे वह एकान्त निर्णीत हो रहा है । इस प्रकार कहनेमें अनवस्थादोष नहीं आता है। क्योंकि अनेकधर्मोका समुदाय बनना एकान्तोंकी अपेक्षा रखता है। इसी कारण अनेकान्तपना व्यवस्थित है और एकान्तकी भी अनेकान्तकी अपेक्षा रखनेवाला होनेके कारण ही एकान्तपनकी व्यवस्था हो रही है । यदि आकांक्षा बढती जाती तो अनवस्था होती, किन्तु यहां तो दोमें ही कार्य चल जाता है। अनेकान्त अनेक एकान्तोंसे बन जाता है और अनेकान्तमें न्यारे न्यारे एकान्त विद्यमान हैं तथा इस प्रकार माननेपर अन्योन्याश्रयदोष भी नहीं है। क्योंकि वस्तुमें नयदृष्टिसे एकान्त और प्रमाणदृष्टिसे अनेकान्त स्वभावसे प्रसिद्ध हो रहे हैं । वस्तुके स्वात्मभूत बनकर प्रसिद्ध हो जानेके कारण अनेकान्तको स्वरूपलाभमें एकान्तकी अपेक्षा नहीं है और एकान्तको भी वस्तुरूपसे अनेकान्तकी अपेक्षा नहीं है। हां ! व्यवहारमें तिस ही कारण परस्परकी अपेक्षासे उन एकान्त और अनेकान्तोंमें अविनाभावकी. प्रसिद्धि हो रही है । जैसे कि कारक हेतु या ज्ञापक हेतु अथवा व्यञ्जक हेतु आदि विशेष पदार्थ हैं । वही आप्तमीमांसामें स्वामीजीने कहा है कि धर्म और