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तवार्यकोकार्तिके
वही अनवस्था होगी। क्योंकि दूसरे विशेषणीभावको सत् बनानेके लिये तीसरे विशेषणीभावसे सत्ता रखनी पडेगी और उसमें भी चौथे विशेषणीभावसे, इस प्रकार सर्वथा भिन्न पडे हुए सत्ताके न्यारे न्यारे विशेषणीभावोंकी कल्पना करते करते कभी आकांक्षा शान्त न होगी। इस प्रकार कोई भी पदार्थ सत् नहीं बन सकता है । सत्तासे भिन्न सभी स्वभावोंको असदूपपना प्रसिद्ध है। इस - प्रकार लम्बा चौडा सर्वथा एकान्तवादियोंका उलाहना उन्हींके ऊपर गिरता है । स्याद्वाद्वियोंके ऊपर कोई दोष नहीं है। हम स्याद्वादी तो अस्तिशद्वके वाच्य सत्तारूप अर्थसे जीव शद्बके वाच्य प्राणी अर्थका कथञ्चित् भेद स्वीकार करते हैं । और तिस ही प्रकार नहीं तर्क करनेमें आवे, ऐसी भेदाभेदात्मक प्रतीति विद्यमान है । भावार्थ-सर्वथा भेद या अभेद मावनेवालोंके यहां अवश्य ही उक्त दोष आते हैं। किन्तु स्याद्वादी अतळ वस्तुव्यवस्थाके अनसार अस्ति और जीवका कथञ्चित् भेदाभेद स्वीकार करते हैं । " स्वभावोऽतर्कगोचरः ”
पर्यायार्थादेशाद्धि भवनजीवनयोः पर्याययोरस्तिजीवशद्धाभ्यां वाच्ययोः प्रतीतिविशिष्टतया प्रतीतेर्भेदः द्रव्याथोंदेशात्तु तयोरव्यतिरेकादेकतरस्य ग्रहणेनान्यतरस्य ग्रहणादभेदः प्रतिभासत इति न विरोधो संशयो वा तथा निश्चयात् । तत एव न संकरो व्यतिकरो वा, येन रूपेण जीवस्यास्तित्वं तेनैव नास्तित्वानिष्टेः येन च नास्तिवं तेनैवास्तित्वानुपगमात् तदुभयस्याप्युभयात्मकत्वानास्थानाच्च । : कारण कि पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे तो अस्ति शके वाच्य भवन ( सत्ता ) और जीव शब्द कर कहा जाय जीवनरूप पर्यायोंका विलक्षण प्रतीति होनेके कारण दोनों पर्यायोंकी प्रतीतिका भेद है। किन्तु द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे उन दोनों पर्यायोंका अभेद होनेके कारण दोनोंमेंसे किसी एकका ग्रहण करनेसे बचे हुए दूसरे एकका ग्रहण हो जाता है। अतः अभेद दीख रहा है। इस प्रकार कोई विरोध नहीं है । विरोध तो अनुपलम्भ होनेसे साध लिया जाता है यहां तो दोनोंका एक साथ उपलम्भ हो रहा है अथवा संशय भी नहीं है । क्योंकि तिस प्रकार भेद अभेदका निश्चय हो रहा है । तिस ही कारण अनेकान्तमें संकर अथवा व्यतिकर दोष भी नहीं हैं, क्योंकि जिस स्वरूपसे जीवको अस्तिपन सिद्ध है, उस ही स्वभावसे नास्तिपन इष्ट नहीं है और जिस स्वभावसे नास्तिपन है, उस ही स्वभावसे अस्तिपन नहीं स्वीकार किया गया है । अतः संकर न हो सका, तथा उन भेद, अभेद, दोनोंको पुनः उभयात्मकपना व्यवस्थित नहीं है । अतः परस्परमें विषय बदलना न होनेके कारण व्यतिकर नहीं हुआ । अनवस्था भी नहीं होती है। वैय्यधिकरण्य ( भिन्न भिन्न अधिकरणपना ) अप्रतिपत्ति ( ज्ञान न होना ) और अभाव हो जाना ये दोष तो अनेकान्तमें कैसे भी नहीं आते हैं। . न चैवमेकान्तोपगमे कश्चिद्दोषः सुनयापितस्यैकान्तस्य समीचीनतया स्थितत्वात प्रमाणार्पितस्यास्तित्वानेकान्तस्य प्रसिद्धः। येनात्मनानेकान्तस्तेनात्मनानेकान्त एवेत्ये