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________________ ४७२ तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके अथास्ति जीव इत्यस्तिशद्भवाच्यादर्थाद्भिन्नस्वभावो जीवशद्धवाच्योऽर्थः स्यादभिन्नस्वभावो वा ? यद्यभिन्नस्वभावस्तदा तयोः समानाधिकरण्यविशेषत्वाभावो घटकुटशद्ववत् तदन्यतराप्रयोगश्च, तद्वदेव विपर्ययप्रसंगो वा। सर्वद्रव्यपर्यायविषयास्ति शदवाच्यादभिअस्य च जीवस्य सर्वद्रव्यपर्यायात्मकत्वासंगः सर्वद्रव्यपर्यायाणां वा जीवत्वमिति संकरव्यतिकरौ स्याताम् । यदि पुनरस्तिवाच्यादर्धाद्भिन्न एव जीवशद्रवाच्योऽर्थः कल्प्यते तदा जीवस्यासदूपत्वप्रसंगोऽस्तिशद्भवाच्यादर्थाद्भिन्नत्वात् खरश्रृंगवत् विपर्ययप्रसंगात् । जीववत्सकलार्थेभ्योऽभिन्नस्यास्तित्वस्याभावप्रसक्तिरनाश्रयत्वात् । तस्य जीवादिषु समवायाददोषोऽयमिति चेन्न, समवायस्य सत्त्वाद्भिन्नस्यासदूपत्वात् स तद्वतोः संबंवत्वविरो. धात् । न च समवाये सत्त्वस्य समवायान्तरमुपपन्नं अनवस्थानुषंगात् स्वयं तथानिष्टेश्च । तत्र तस्य विशेषणीभावाददोषो इति, सोपि विशेषणीभावः संबंधो यदि सत्त्वाद्भिबस्तदा न सदूप इति खरविषाणवत्कथं संबंधः? परस्माद्विशेषणीभावात्सत्वस्य प्रममविशेषणी भावे यद्यसदूपत्वाभावस्तदा सैवानवस्था तत्रापि सत्त्वस्य भिन्नस्यान्यविशेषणीभावकल्प नादिति न किंचित्सन्नाम । सत्याद्भिन्नस्य सर्वस्य स्वभावस्यासद्रूपत्वप्रसिद्धरिति, सर्वथैकांतवादिनामुपालंभो न स्याद्वादिनामास्तिशद्भवाच्यादर्थाज्जीवशद्ववाच्यस्यार्थस्य कथंचिद्भिन्नत्वोपगमात् । तथैव वाचिंत्यप्रतीतिसद्भावाच्च । : अब स्याद्वादियोंके ऊपर एकान्तवादियोंका यह उलाहना है कि " अस्ति जीवः " इस प्रकार प्रहिले वाक्यमें अस्तिका अर्थ सत्तावाला है, इस अर्थसे जीव शब्द द्वारा कहा गया अर्थ क्या भिन्न स्वरूप है ? या अभिन्न स्वरूप है । बताओ ! यदि द्वितीय पक्षके अनुसार अभिन्न स्वरूप माना जायगा तब तो उन जीव और अस्तिमें विशेषताके साथ होनेवाले समान अधिकरणपनेका अभाव हो जायगा । जैसे कि घट और कलश शद्बमें सर्वथा अभेद होनेके कारण समानाधिकरणता नहीं है। भावार्थ-कथंचित् भिन्न पदार्थों में समानाधिकरणता होती है। जैसे कि नील और उत्पलमें है । कम्बल, जामुन, मेघ, भी नील होते हैं तथा लाल, पीले, शुक्ल, भी कमल होते हैं। अतः नील और उत्पल का सर्वथा अभेद नहीं है। व्यभिचार संभवनेपर दो आदि पदार्थोंमें सामानाधिकरण्य होता है। जीव जीव या अस्ति अस्तिमें भी सर्वथा अभेद होनेके कारण समानाधिकरणपन नहीं बनता है । जिन दो तीन आदि पदार्थीका अधिकरण समान है, उनको समानाधिकरण कहते हैं और उन समानाधिकरणोंके भावको समानाधिकरण्य कहते हैं। दूसरी बात यह है कि जीव और अस्ति दोनों आदि अभिन्न हैं तो दो पदोंमेंसे एक हीका प्रयोग न करना चाहिये । जैसे पर्यायवाची घट या कलश शद्बोंमेंसे एकका प्रयोग नहीं किया जाता है। तीसरी बात यह है कि उस हीके समान विपर्यय हो जानेका प्रसंग होगा अर्थात् जीव जौर अस्तिके अभेद हो जानेपर " अस्ति जीवः " ऐसा कहनेपर " जीवः अस्ति" यह भी उद्देश्य और विधेयका परावर्तन हो जाय
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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