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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः आस्रवत्व आदि करके नहीं है । ऐसा विवक्षित है । सामान्यकी विवक्षा होनेपर विशेष प्रतिकूल भासते हैं इस प्रकार पांचमे भी दो भंग बन गये ( ५ ) । तथा अपने व्याप्य विशेष अंशोंसे रहित द्रव्यसामान्य' करके जीव है और वही जीव गुणके सामान्य गुणत्व करके नहीं है । भावार्थ-जीव 1 वस्तु भेदविवक्षा करनेपर, द्रव्य, गुण, और पर्यायें, न्यारी न्यारी हैं। जिस समय केवल द्रव्य सामान्यसे ही जीव विवक्षित होकर विद्यमान है । उस समय गुणसामान्यसे नहीं है । इस प्रकार छठे दो भंग बन गये ( ६ ) । तीनों कालमें रहनेवाले अनन्तज्ञान, आदि शक्तियों के समूह स्वरूप धर्मसमुदाय करके जीव है और उन अनन्त गुणोंसे कथंचित् भिन्न होकर देखे जा रहे एक दो धर्मस्वरूप करके या उनकी वर्तमानकालमें दृश्यमान थोडीसी पर्यायों करके ही जीव नहीं हैं भावार्थ — जीवमें चौदह गुणोंको वैशेषिक मानते हैं । कोई जीवमें एक ज्ञानगुणको ही मानते हैं । उनके सन्मुख यह कहा जा सकता है कि प्रत्यक्षित, अनुमानित और आगमगम्य अनन्त गुणोंके समुदाय करके जीवकासत्त्व है । केवल कुछ प्रत्यक्ष द्वारा देखे जा रहे थोडेसे गुणोंसे ही जीवका अस्तित्व नहीं है । यानी उस रूपसे जीव नास्ति है । इस प्रकार भी दो भंगों ( सातवें ) की कल्पना हुयी ( ७ ) । धर्मोके सामान्य संबंध द्वारा जिस किसी भी धर्मके आश्रयपने करके जीव है । और धर्म सामान्यके अभाव करके यानी किसी भी अन्य धर्मके आश्रय रहितपने करके जीव नहीं है । अर्थात् विशेषताओंसे रहित सामान्यरूपसे संपूर्ण धर्मोकी जीवमें योजना करनेवाला कथंचित् तादात्म्य संबंध है । अनन्त धर्मोमेंसे चाहे किसी भी धर्मका तादात्म्य संबंधसे जीव आश्रय हो रहा है, किन्तु उस सामान्य तादात्म्य सम्बन्धको बिना चाहे किसी भी धर्मका आश्रय जीव नहीं है । इस कारणसे भी आठवे दो भंगों की उत्पत्ति हुयी ( ८ ) । किसी धर्मविशेषके सम्बन्ध द्वारा नित्यत्व, चेतनत्व, अमूर्त्तत्व, कर्तृत्व, आदि धर्मोमेंसे किसी एक धर्मके सम्बन्धीपने करके जीव है और विशेष धर्मके सम्बन्धके अभावसे नित्यत्व आदिकका संबंधी न होनेके कारण जीव नहीं है। अर्थात् नित्यत्वके नियोजक विशेष तादात्म्य सम्बन्ध करके नित्यत्व धर्मका ही संबंधी जीव है । उस विशेष तादात्म्य सम्बन्धके न होनेपर चेतनत्वका संबंधी जीव नहीं है । ये भी दो भंगों (नवमें) की प्रक्रिया है ( ९ ) । इस ढंगके अनुसार अनेक प्रकारोंसे विधियां और निषेधोंकी कल्पना करके संपूर्ण पदार्थोंमें सात भंगोके मूलभूत दो भंगोंका कथन कर लेना चाहिये । अपने वाचक जीव शब्द करके जीव है। अन्यके वाचक शब्दों करके जीव नहीं है । जीवको विषय करनेवाले ज्ञानसे जीव है । अन्यको विषय करनेवाले ज्ञानसे नहीं । ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा वर्तमान पर्यायसे जीव है । भूत भविष्यत् पर्यायोंसे नहीं । प्राणधारणरूप क्रियापरिणतिसे जीव है । अन्य परिणतियोंसे नहीं है । काल, आत्मरूप, आदिके द्वारा अभेद सम्बन्धवाले धर्मोकी अपेक्षासे जीव है । सर्वथा भिन्न धर्मोकी अपेक्षासे जीव नहीं है । इस प्रकार दो मूल भंगोंकी पद्धति नाना प्रकारकी है । 1 ४७१
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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