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________________ तत्वार्यचिन्तामणिः कि शद्वके द्वारा साक्षात् वाच्य होकर ग्रहण किया गया ही धर्म मुख्य अर्थ कहा जाय और शेष दूसरे अर्थ गौण हो जावें । अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो नहीं कहना । क्योंकि अविचलित ज्ञानपने की भी आपके कथनानुसार मुख्य अर्थपनेके साथ व्याप्ति नहीं बनती है । देखिये ! प्रकरण, योग्यता, अवसर, आदिसे प्रसिद्ध कर लिये गये अविचलित ज्ञानके विषयको भी गौणपना सिद्ध हो रहा है । " गंगायां घोषः " यहां गौण अर्थ गंगातीरमें समीचीन प्रतिपत्ति होना सिद्ध है । समझनेवाले शिष्य करके जिज्ञासाको प्राप्त हो रही वस्तु जिस समय मुख्य अर्थ मानी गयी है, उस समय वक्ता के द्वारा उस शिष्यके प्रति बोले गये शब्द करके कहा गया धर्म ही प्रधानपनका अनुभव करता है । इस कारण उस धर्मसे शेष बचे हुए अनन्तधर्मों में गौगअर्थपना सिद्ध है । यही हमने पूर्वमें कहा था। शाद्वबोधकी प्रक्रियामें लक्षण, उपचार, तात्पर्य, संकेतग्रहण, आदिका लक्ष्य रखना आवश्यक है । ४६७ नन्वस्तु प्रथमद्वितीयवाक्याभ्यामेकैकधर्ममुख्येन शेषानन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनः प्रतिपत्तिः कथञ्चिदभिहितप्रकाराश्रयणात्तृतीया दिवाक्यैस्तु कथं सत्त्वस्यैव वानंशशद्वस्य तेभ्योऽ प्रतिपत्तेरिति चेन्न, तृतीयाद्वाक्याद् द्वाभ्यामात्मकाभ्यां सत्त्वासत्त्वाभ्यां सहार्पिताभ्यां निष्पन्नैकस्यावक्तव्यत्वस्यानंशशद्रस्य प्रतीतेः । चतुर्थात्ताभ्यामेव क्रमार्पिताभ्यामुभयात्मकत्वस्य वंशस्य प्रत्ययात् । पञ्चमात्त्रिभिरात्मभिर्व्वेशस्यास्त्यवक्तव्यत्वस्य निर्ज्ञानात्, षष्ठाश्च त्रिभिरात्मभिर्ब्रशस्य नास्त्यवक्तव्यत्वस्यावगमात् । सप्तमाच्चतुर्भिरात्मभिस्त्र्यंशस्यास्तिनास्त्यवक्तव्यत्वस्यावबोधात् । 1 यहां कोई शंका करते हैं कि हम आप जैनियोंके कहे गये प्रकारका कथञ्चित् आश्रय कर लेते हैं, यानी शद्वसे सुनागया अर्थ शह्नका प्रधान वाक्यार्थ है और जानलिये गये अनन्त धर्म गौण अर्थ हैं । ऐसा होनेपर भी पहिले अस्तित्व और दूसरे नास्तित्व इन दो वाक्योंसे तो एक एक धर्मकी मुख्यता करके बचे हुए अनन्त धर्मस्वरूप वस्तुकी प्रतीति किसी ढंगसे भले ही हो जाओ ! किन्तु तीसरे चौथे आदि वाक्यों करके कैसे वस्तुकी प्रतिपत्ति हो सकेगी ? क्योंकि निरंश शङ्खके वाय केवल सत्वका ही अथवा अकेले असत्त्वका ही तिन वाक्यों करके ज्ञान नहीं होता है । अब आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना। क्योंकि तीसरे अवक्तव्य वाक्य करके साथ विवक्षित किये गये दो सत्त्व, असत्व, स्त्ररूप धर्मोसे बनाये गये एक अवक्तव्यपनकी अंशरहित शद्वके द्वारा प्रतीति होती है । भावार्थ --- पहिले और दूसरे भंगके समान तीसरा अवक्तव्य धर्म भी अकेला होकर निरंश है । अतः तीसरे अंशरहित अवक्तव्य शद्वका वाच्य हो जाता है। चौथे वाक्यसे क्रमसे विवक्षित किये गये उन सत्त्व, असत्त्व ही दो धर्मों करके उभयात्मक हो रही अस्ति नास्ति रूप दो अंशवाली वस्तुका ज्ञान होता है। तथा पांचमें सप्तभंगी वाक्यसे तीन धर्मस्वरूपों करके दो अंशवाले एक अस्ति अवक्तव्यपनका निर्णीत ज्ञान हो रहा है। तथा छठे वाक्यसे तीन स्वरूपों
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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