SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 449
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्वार्थ लोकवार्तिके करनेपर घट हीको लाओ ! घट भिन्नको नहीं लाओ ! किसी भी प्रकारसे अघटको मत ( नहीं ) लाओ ! ऐसी अन्यव्यावृत्तिओंकी प्रतीति होगी नहीं। तब तो घटको लाओ ! उस शद्वका बोलना भी व्यर्थ पडेगा। क्योंकि वह नहीं कहे हुए के सदृश है । विधायक शद्वके बोलनेपर किसी भी इच्छानुसार पदार्थको लानेवाला मृत्य कृतकृत्य हो जाना चाहिये । क्योंकि प्रभुके शब्द द्वारा अन्यका निषेध तो कहा नहीं गया है । जलके मंगानेपर वस्त्रको देनेवाला सेवक स्वामीका क्रोधपात्र न बनना चाहिये । तथा निषेध वाचक शह्नोंका अर्थ यदि सर्वथा निषेध पकडा जायगा तो मद्य नहीं पीना चाहिये इत्यादि निषेध करनेवाले शब्दोंके प्रयोग होनेपर मधसे भिन्न दूसरे जल, दुग्ध, आदिके पीनेका विधान तो समझा नहीं जायगा । तब तो सुरा शद्वका प्रयोग करना ही व्यर्थ पडेगा। क्योंकि दूध, जल, ठण्डाई, छाछ, सभीके पीनेका निषेध किया जा रहा है । शद्ब तो सबके निषेध करनेवाले ही 1 ठहरे । यदि तुम यों कहो कि उससे तो सुरापानका ही निषेध किया गया है। दूध, जलजीरा, आदिके पीनेका तो निषेध नहीं किया गया है और विधान भी नहीं किया गया है । अतः कोई दोष नहीं है । ऐसा कहनेपर तो हम जैन पूंछे कि इस समय क्या आपने शद्वके द्वारा कहीं निषेध होना और उससे दूसरे अर्थ में उदासीन बने रहना ये शब्द के विषयभूत अर्थ माने हैं ? बताओ । तैसा होनेपर तो कहीं विधान हो गया। इस ढंगसे तो आपके निषेधकपनेका एकान्त न रहा । यदि उस वाच्यार्थसे अतिरिक्त अन्य स्थलमें विधान माना जाय और निषेध करना न माना जाय, इस प्रकार तो हम नहीं कह सकते हैं, क्योंकि व्याघात होता है। ऐसा मानोगे तो तिस ही कारण अन्यका निषेध न करनेपर स्वार्थका विधान और उस स्वार्थ के विधान न होनेपर अन्यका निषेध करना भी मत हो । यहां भी तो आपको व्याघात हो जानेका भय मानना चाहिये । अच्छा उपाय तो यही है कि शके गौण या प्रधानरूपसे स्वार्थकी विधि और अन्यका निषेध ये दोनों अर्थ मान लिये जांय । कचित् चाक्षुष प्रत्यक्ष आलोकके समान ही अर्थके लिये एवकारको द्योतक समझा जाय । सर्वस्य शब्दस्य विधिप्रतिषेधद्वयं विषयोऽस्तु तथा चावधारणमनर्थकं तदभावेऽपि स्वार्थविधानेऽन्यनिवृत्तिसिद्धेरित्यपरः, तस्यापि सकृद्विधिप्रतिषेधौ स्वार्थेतरयोः शद्धः प्रतिपादयंस्तदनुभयव्यवच्छेदं यदि कुर्वीत तदा युक्तमवधारणं तदर्थत्वात् । नो चेत् अनुक्तसमः । सम्पूर्ण शब्दोंके वाच्य विधि और निषेध दोनों ही विषय होओ ! और तिस प्रकार होनेपर एवकारसे नियम करना व्यर्थ पडेगा । क्योंकि उस एवकारके न होनेपर भी स्वार्थके विधान करनेपर अन्यकी निवृत्ति होना स्वभावसे सिद्ध हो जाता है, इस प्रकार अन्य कोई चौथा वादी कह रहा है । उसके यहां भी एक बार में ही स्वार्थकी विधि और इतरके निषेधको कह रहा शब्द यदि उन दोनोंसे भिन्न अनुभयके व्यवच्छेदको करेगा, तब तो नियम करना युक्त पडा । क्योंकि उसके लिये ही तो एवकार है। यानी अनुभयके निषेधको करनेपर ही उभयकी विधिको कह सकता है । यदि अनुभयकी व्यावृत्ति करना इष्ट नहीं हैं तो वह कहा गया कोई भी शब्द नहीं कहा गया सरीखा ही ४३६
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy