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तत्वार्थचिन्तामणिः
यहां पुनः अधिक मंगों के बढ जानेका आपादान करनेके लिये शंका उठायी जाती है कि इस प्रकार तो तीसरे उभयका पहिले अस्तित्व के साथ संयोग होनेपर दो अस्तित्व और नास्तित्वकी प्रधानता (१) । तथा तृतीय उभयका दूसरे नास्तित्वके साथ सम्मेलन करनेपर दो नास्तित्व और एक अस्तित्वका क्रमसे पूंछना होनेके कारण ( २ ), उभय अस्ति और उभय नास्ति ये दो भंग भी अपुनरुक्त हो जाओ। क्योंकि पहिले तिस प्रकार पूछना हुआ नहीं । तिस ही प्रकार चौथेका पांचवेंके साथ संयोग होने पर दो अवक्तव्य और एक अस्तिपनका नया प्रश्न है ( ३ ) । चौथेका छठेके साथ संयोग होनेपर दो अवक्तव्य और एक नास्तित्वका भी नवीन प्रश्न है ( ४ ) । तथा चौथेका सातवें के साथ मेल होनेपर दो अवक्तव्य एक अस्तित्व और एक नास्तित्वका क्रमसे प्रधानपन करके प्रश्न हो सकता है । पुनरुक्तपन नहीं है ( ५ ) । तथा पांचमेंका छठेके साथ मेल होनेपर दो अव
व्य एक अस्तित्व और एक नास्तित्वका नया प्रश्न होगा ( ६ ) | पांचमेंका सातवेंके साथ संयोग होनेपर दो अवक्तव्य दो अस्तित्व और एक नास्तित्वका प्रधानपनेसे प्रश्न हो जानेके कारण एक सातवां नया प्रश्न अस्ति हो जाता है ( ७ ) । तथा छठे नास्त्यवक्तव्यका सातवें अस्तिनास्त्यवक्तव्य के साथ संयोग होनेपर दो अवक्तव्य दो नास्तित्व और अस्तित्वका आठवां प्रश्न हुआ ( ८ ) । एवं सातवेंका पहिले के साथ संयोग होनेपर दो अस्तित्व एक नास्तित्व और एक अवक्तव्यपनका नवमा प्रश्न हुआ ( ९ ) । तथा सातवेंका दूसरे भंगके साथ योग होनेपर दो नास्तित्व एक अस्तित्व और एक अवक्तव्यका दश (१०) । एवं सातवेंकी तृतीय भंगके साथ संयुक्ति होनेपर दो अस्तित्व दो नास्तित्व और एक अवक्तव्यका प्रधानभाव करके क्रमसे पूंछना होनेके कारण ग्यारहवां प्रश्न हुआ (११) । इन सात भंगों में से दो का संयोग कर बनाये गये व्यारह प्रश्न पुनरुक्त नहीं हैं। क्योंकि पहिलेकै सातों भंगोमें ये पूंछे जा चुके नहीं हैं। इस कारण उनके प्रत्युत्तरमें दिये गये ग्यारह अंगों को भी अपुनरुक्तपना सिद्ध होता है । अतः सात और ग्यारहको मिलानेपर अठारह भंग हो जाते हैं । तिस प्रकार इन अठारहकों के भी द्विसंयोगी आदि करनेपर अन्य भी पचासों, सैंकड़ों, प्रश्नोंकी सन्तान बढेगी और हजारों अन्य भंग सिद्ध हो जायंगे । तथा उनके भी संयोग करनेपर उनसे असंख्य दूसरे दूसरे भंग होते जांयगे । फिर शेकडो भंग हो जानेका आप जैन कैसे निषेध कर सकते हैं ? कबूतरोंकी सन्तान प्रतिसन्तानके समान यह भंग परिवार बढता ही चला जायगा । यदि संयोगजन्य भंगोंको न माना जायगा तो जैनोंको पहिलेके केवल दो भंग माननेका ही प्रसंग होगा। इस प्रकार कोई कह रहे हैं ।
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तदयुक्तम् । अस्तित्वस्य नास्तित्वस्य तदवक्तव्यस्य चानेकस्यैकत्र वस्तुन्यभावात् नानावस्तुषु सप्तभंग्याः स्वयमनिष्टेः । यत् पुनर्जीववस्तुनि जीवत्वेनास्तित्वमेवाजीवत्वेन च नास्तित्वं मुक्तत्वेनापरममुक्तत्वेन चेत्याद्यनन्तस्वपरपर्यायापेक्षयानेकं तत्सम्भवति वस्तुनोऽनन्तपर्यायात्मकत्वादिति वचनं, तदपि न सप्तभंगीविघातकृत्, जीवत्वा जीवत्वापेक्षाभ्यामिवा